बुधवार, दिसंबर 23, 2009

भाईचारा और सद्भावना पर अब ब्लॉग भी लिखते हैं

प्रेम,मोहब्ब्त,भाईचारा ,सद्भावना,कितनी बड़ी बडी बातें करते हैं हम मनुष्य ।साहित्य रचते हैं ,भाषण देते हैं, सभायें करते हैं,गोष्ठियाँ करते हैं ,जनान्दोलन करते हैं ,नाटक करते हैं और अब ब्लॉग भी लिखते हैं । भाईचारा इन दिनों सगे भाईयों के बीच भी नहीं पनप पाता फिर विभिन्न धर्मावलम्बियों,मतावलम्बियों और अलग अलग विचारों के लोगों के बीच पनपना तो बहुत बड़ी बात । हम एक दूसरे को जानते हैं लेकिन मिलते हैं तो पहचानते नहीं । कहने को एक दूसरे के दोस्त कहलाते हैं लेकिन पेश आते हैं दुश्मनों की तरह ।फिर भी हम कोशिश जारी रखते हैं कि यह भाईचारा जो कहीं गुम हो गया है ..फिर लौटकर मनुष्यों के इस घर में वापस आ जाये ।यह हमारा मनुष्य होने का गुण है ।
जब भी आप रेल से यात्रा करते हैं ,आपने देखा होगा ,पटरी के किनारे ,मैले कुचैले,नंग-धड़ंग कुछ बच्चे आपकी ओर देख कर हाथ हिलाते हैं ..कुछ लोग हिकारत की नज़रों से देखते हैं तो कुछ अनदेखा कर जाते हैं ।आपने सोचा है कभी ..इस बारे में .. ? मैने एक दिन भाईचारे के बारे में सोचते हुए इनके बारे में सोचा तो यह कविता बन गई .. आप भी पढ़ लीजिये .. लोहे के  घर यानि रेलगाड़ी पर लिखी यह एक और छोटी सी कविता


                       लोहे का घर-छह


हर रोज़ सुबह
याद से
रेल की खिड़की से झाँकते
मुसाफिरों की ओर देखकर
अपना हाथ हिलाता है वह

बावज़ूद
पूरी रेल में
उसका अपना कोई नहीं होता ।




-             शरद कोकास
चित्र गूगल से साभार

बुधवार, दिसंबर 16, 2009

कोई चेहरा गाज़र के हलुवे की प्लेट सा लगता है

                 सुबह सुबह मुँह खोलो तो निकलती है ढेर सारी भाफ़ ..ऐसा लगता है कोई चाय की केटली रखी हो दिल के भीतर । आलिंगन के लिये बढ़ते हुए हाथ गर्म कम्बल की तरह दिखाई देते हैं , सुबह की गुनगुनी धूप में मफलर से लिपटा हुआ कोई चेहरा गाज़र के हलुवे की प्लेट सा  लगता है  ।दोपहर , जल्दी बाय बाय कहकर चली जाने वाली प्रेमिका की तरह और शाम नकाब पहनकर आती किसी खातून की तरह लगती है । रात पेट भरने के बाद रज़ाई में घुसते समय सुख के अहसास में इतनी उछल कूद होती है मानो कोई ज़लज़ला आ गया हो  ।
                माफ कीजियेगा ..यह सारे सुविधाभोगी जीवन के बिम्ब हैं ।.लेकिन उन करोड़ों लोगों का क्या जिन्हे कड़कड़ाती ठंड में भी यह सब नसीब ही नहीं है । अभी उस दिन एक दोस्त ने कहा कि उसे ठंड अच्छी नहीं लगती ..सुबह सुबह अखबार में ठंड से मरने वालों की संख्या देखकर वह काँप जाता है ।
                 लेकिन कोई तो है ..जो इस भयानक ठंड से लड़ने के लिये तैयार बैठा है ..वह मेरे देश का आम आदमी है जिसे उसका दुश्मन नज़र तो आ रहा है ऐसा दुश्मन जिसके चेहरे पर शोषक की एक ठंडी मुस्कान है ..लेकिन इस ग़रीब आदमी के पास उसका मुकाबला करने के लिये कुछ नहीं है ..कुछ है तो  बस दिमाग़ में विद्रोह की एक आग और समूह की ताकत  .. लीजिये ..कविता पढ़िये ..



                       ठंड


मैं नहीं गया कभी कश्मीर
न मसूरी न नैनीताल
दिल्ली क्या
भोपाल तक नहीं गया मैं


नहीं देखे कभी
तापमान के चार्ट
अखबारों में नहीं पढ़ा
टी.वी.पर नहीं देखा
किस साल कितने लोग
ठन्ड से मरे


शहर से आये बाबू से
नहीं पूछा मैने
तुम्हारे उधर ठंड कैसी है
नहीं हासिल हुए मुझे
शाल स्वेटर दस्ताने और मफलर
 

मुझे नहीं पता
ठंड से बचने के लिये
लोग क्या क्या करते हैं


ज्यों ज्यों बढ़ी ठंड
मैने इकठ्ठा की लकड़ियाँ
और.....


पैदा की आग ।

                        - शरद कोकास 
(चित्र गूगल से साभार)

शनिवार, दिसंबर 05, 2009

इसके लिये भी भूमिका लिखूँ.....?

            छह दिसम्बर उन्नीस सौ ब्यानबे



रेल में सवार होकर अतिथि आये
बसों में चढ़कर अतिथि आये

पैदल पैदल भी अतिथि आये
कारों में बैठकर भी अतिथि आये



बनाये गये तोरणद्वार
बान्धे गये बन्दनवार
पाँव पखारे गये
खूब हुआ खूब हुआ
परम्परा का निर्वाह



जुलूस निकले
जय जयकार हुई
शंख बजे
घड़ियाल बजे
नारे गूंजे
भाषण हुए
गुम्बद गिरा

कुचले गए फूल
रौन्दे गये पत्ते



अखबारों में छपा
नगरी राममय हुई ।

                        - शरद कोकास 
चित्र गूगल से साभार 

बुधवार, दिसंबर 02, 2009

भोपाल गैस कांड की याद में एक बेमौसम कविता -शरद कोकास

भोपाल गैस कांड में जो प्रभावित लोग ज़िन्दा बच गये थे वे भी आज खुश कहाँ हैं ? पिछले 25 बरसों में जाने कितने लोग धीरे धीरे मर चुके हैं गैस के प्रभाव की वज़ह से । वे जिनके फेफड़े और अन्य अंग प्रभावित हो गये थे वे ,जिनकी बीमारी की मूल वज़ह वह गैस थी और यह बात उन्हे भी नही पता थी । सोचिये उन गर्भवती स्त्रियों ,बच्चों और बूढों के बारे में ज़हरीली गैस जिनकी कोशिकाओं में समा गई थी । यह वैज्ञानिक तथ्य आपको पता है ना ..हम साँस कहीं से भी लें श्वसन क्रिया कोशिकाओं में होती है ।
खैर जिस तरह हिरोशिमा और नागासाकी के विकीरण के प्रभाव को लोग भूल गये उसी तरह आज लोग इस बात को भूल चुके हैं कि यूनियन कार्बाइड नाम की कोई हत्यारी फैक्टरी भी थी । कुछ दिनो तक लोगों ने लाल एवरेडी का बहिष्कार किया फिर भूल गये । पीड़ितों को मुआवज़ा अवश्य मिला लेकिन लोग यह भूल गये कि मुआवज़े के पैसे से दवा खरीदी जा सकती है ज़िन्दगी नहीं ।
यह हमारे देश की संस्कृति है कि हत्यारे के नकली आँसू देखकर उसे गले लगा लिया जाता है । हत्यारा फिर फिर हँसता है और गले मिलकर फिर पीठ में छुरा घोंप देता है । 25 बरस पहले मुझे समझ नहीं थी लेकिन गैसकांड पीड़ितों और समाज के हित में काम करने वाली संस्थाओं के आन्दोलन देख कर लगता था कि अब शायद दोबारा देश में ऐसा न हो ,लेकिन वह एक झूठा स्वप्न था ,मानवता की हत्या करने वाली बहुत सारी मल्टीनेशनल कम्पनियाँ फिर आ गईं है....बल्कि इस बार उन्हे नेवता देकर बुलाया गया है । हत्या का तरीका भी अब बदल गया है । इसलिये अब दोबारा देश में ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये ।
मैने कविता लिखना सीखा ही था उन दिनों और लिखना-पढना शुरू ही किया था । उस उम्र का एक स्वाभाविक असर था कि आक्रोश मन में जन्म ले रहा था ...कैसे लोग हैं जो इस ज़हरीली गैस कांड के बाद भी देश में बसंतोत्सव मनाने जा रहे हैं ..इस गुस्से को शांत करने के लिये एक कविता लिखी गई थी जो उस समय अखबार में छपी भी थी .. आज गैस कांड की इस पच्चीसवीं बरसी पर इसे प्रस्तुत कर रहा हूँ .. इस निवेदन के साथ कि इसके बिम्बों को उस घटना के सन्दर्भ में समझने की कोशिश कीजियेगा और सोचियेगा कि क्या आज हम फिर इन कड़वी सच्चाइयों को भूल कर उत्सवधर्मिता में मग्न नहीं हो गये हैं ?


                                   बसंत क्या तुम उस ओर भी जाओगे ?


बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे
जहाँ पेड़ देखते देखते
क्षण दो क्षण में बूढ़े हो गये
देश की हवाओं में घुले
आयातित ज़हर से
बीज कुचले गये
अंकुरित होने से पहले और जहाँ
वनस्पतियाँ अविश्वसनीय हो गईं
जानवरों के लिये भी


जाओ उस ओर तुम देखोगे
और सोचोगे पत्तों के झड़ने का
अब कोई मौसम नहीं होता
ऊगते हुए
नन्हे नन्हे पौधों की कमज़ोर रगों में
इतनी शक्ति शेष नहीं
कि वे सह सकें झोंका
तुम्हारी मन्द बयार का
पौधों की आनेवाली नस्लें
शायद अब न कर सकें
तुम्हारी अगवानी
पहले की तरह खिलखिलाते हुए


आश्चर्य मत करना देखकर
वहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को ।

-शरद कोकास 

(चित्र गूगल से साभार )

शनिवार, नवंबर 28, 2009

रेल के डिब्बे में रात होते ही गठरी हो जाता है आदमी


                हमारा समाज भी एक  रेल के डिब्बे की तरह ही है । आपने सोचा है कभी कि क्लास या वर्ग की अवधारणा सर्वप्रथम आम आदमी ने रेल के डिब्बे से ही जानी । यह भी अनायास नहीं हुआ कि एक ज़माने में थर्ड क्लास कहलाने वाला डिब्बा अपग्रेड कर सेकंड क्लास कर दिया गया लेकिन उसमें सफर करने वाले का क्लास वही रहा । आज भी आम आदमी उसी क्लास में सफर करता है जिसे जनरल क्लास कहा जाता है ,इसलिये कि इससे ज़्यादा खर्च करने की उसकी क्षमता नहीं है । लेकिन इस आम आदमी का भी यह ख्वाब होता है कि वह कभी न कभी खास कहलाये .. वह धीरे धीरे पैर पसारता है और .. फिर कहीं न कहीं अपनी जड़े जमाने की कोशिश करता है .. रेल में जगह छिन जाने का डर और शहर में हमेशा उजड़ जाने का डर लिये वह अपनी अस्थायी बस्ती बसाता है  .. इस क्षणिक उपलब्धि को भी वह उत्सव की तरह मनाता है .. हँसता है ,गाता है, मुस्कुराता है..और इस उत्सव के साथ ज़िन्दगी की रेल चलती रहती है ।
             हाँ इन दिनों यह आम आदमी किसी और कारण से भी मुस्कुरा रहा है.. बता सकते हैं आप क्यों ? चलिये इस कविता को पढ़कर कुछ अन्दाज़ लगाइये ...
                   
                  लोहे का घर-चार
 
रेल के डिब्बे में
रात होते ही
गठरी हो जाता है आदमी
भीतर मैले कुचैले विचार समेटे हुए

किसी की टांगों पर
किसी का सर
या सर पर टांगे हों
तब भी
कोई बुरा नहीं मानता

टांग पसारने की
उपलब्धि हासिल होते ही
मुस्कुराता है आदमी
चलती है रेल ।
                   शरद कोकास                                                                                     

गुरुवार, नवंबर 26, 2009

मुम्बई 26 /11 की याद में...शहीदों को श्रद्धांजलि सहित


मेरी 1986 की डायरी से आतंकवाद के खिलाफ़ लिखी एक कविता                      

नोंच कर फेंक दी मैने अपनी आँखें 

मैने फिर सुनी नींद में
गोलियाँ चलने की आवाज़
एक दो तीन चार
पाँच छह सात आठ
मुझे लगा मेरा बच्चा
गुनगुनी धूप में बैठकर
गिनती याद कर रहा है

मैने देखा सपने में
बिखरा हुआ खून
पाँवों में महावर लगाते हुए
शायद पत्नी के हाथ से
कटोरी लुढक गई है

 बम फटने की आवाज़ें
धुएँ का उठता बवंडर
शायद मोहल्ले के बच्चे
दीवाली की आतिशबाज़ी में व्यस्त हैं

फिर ढेर सारी आवाज़ें
भारी भरकम बूटों की
कल मेरा जवान भाई कह रहा था
परेड की तैयारी में
शायद उसके दोस्त
उसे लेने आये हैं


फिर कुछ औरतें
आँखों में लिये आँसू
पिछले दिनो ही तो मैने
अपनी लाड़ली बहन को विदा किया है
डोली में बिठाकर


मैने चाहा बारबार
खोलकर देखूँ अपनी आँखें
निकल आऊँ बाहर
चेतन अचेतन के बीच की स्थिति से

लेकिन नींद  में
सुख महसूसने की लालसा में
सच्चाइयाँ खड़ी रहीं पीछे


यकायक संगीन की तेज़ नोक
मेरी सफेद कमीज़ को
सीने से चीरते हुए
पेट तक चली आई
मेरी खुली आँखों के सामने थी
खून के सैलाब में डूबी हुई
मेरी पत्नी की लाश
पहाड़ों की किताब पर
मासूम खून के छींटे
एन सी सी की वर्दी व बूटों से दबी
जवान भाई की देह
फटी अंगिया से झाँकता
इकलौती बहन का मुर्दा शरीर


चीखने चिल्लाने की कोशिश में
मैने एक बार चाहा
बन्द कर लूँ फिर से अपनी आँखें
और पहुंच जाऊँ कल्पना की दुनिया में

लेकिन मेरा पुरुषत्व
नपुंसकता की हत्या कर चुका था
नोचकर फेंक दी मैने
अन्धे कुएँ में ले जाने वाली अपनी आँखें
 सपनो की दुनिया में भटकाने वाली
अपनी आंखें
सब कुछ देख कर भी
शर्म से झुक जाने वाली
अपने आंखें


संगीन की नोक
मेरे पेट तक  आकर रुक गई है
और मै नई आँखों से देख रहा हूँ

मेरी कमीज़ का रंग
अब लाल हो चला है ।


                      शरद कोकास                                                                            

रविवार, नवंबर 22, 2009

हम सभी खानाबदोश है...


            हम में से ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी जड़ों से उखड़कर  नई जगहों पर जमने की कोशिश कर रहे हैं ..। खानाबदोशों की तरह हमारे पूर्वज जाने कहाँ से भटकते हुए आये और कहीं किसी जगह पर स्थायी हो गये । फिर उस पीढ़ी से कुछ लोग निकले रोजी-रोटी की तलाश में और नई जगह स्थापित हो गये । फिर अगली पीढ़ी में भी ऐसा ही हुआ । यह सिलसिला अभी भी चल रहा है और जाने कब तक चलता रहेगा !
             मेरे परदादा स्व. विश्वेश्वर प्रसाद रायबरेली ज़िले के एक गाँव लाऊपाठक का पुरवा से निकले और फतेहपुर आ गये ,तीस वर्ष वहाँ रहने के बाद सन 1900 के आसपास मध्यप्रांत में  बैतूल  आ गये जहाँ उनके पाँच पुत्र हुए  बाबूलाल बृजलाल,कुन्दनलाल,सुन्दरलाल व चन्दनलाल । फिर मेरे पिता श्री जगमोहन रोजी –रोटी के लिये बैतूल से निकले और महाराष्ट्र के भंडारा नामक स्थान पर आ गये । वीरेन्द्र चाचा मुम्बई में, रमेश चाचा नागपुर में और मनोहर चाचा भिलाई आ गये । और मै अपना घर छोड़कर निकला तो छत्तीसगढ़ के इस शहर दुर्ग में आ गया । मेरे और भी कई दादाओं,चाचाओं और भाइयों की यही कहानी है ।
            हम में से बहुत से लोग हैं जो विस्थापन का यह दर्द भोग रहे हैं । इस देश के हर शहर में ऐसे लोग हैं जिनकी जड़े कहीं और थी और वे अब नई जगहों पर जमने की कोशिश कर रहे हैं । हाँलाकि समय के साथ वे उस नई जगह की संस्कृति में रच-बस गये हैं लेकिन उनके मन की व्यथा कौन समझ सकता है ..उस स्थिति में तो और भी नहीं जब 3-4 पीढ़ियाँ गुजर जाने के बाद भी उन्हे बाहरी समझा जाता है ।उन्हे बार- बार यह अहसास दिलाया जाता है कि उनके कारण स्थानीय लोगों की उपेक्षा हो रही है । उनका अपमान किया जाता है । और ऐसा कहने वाले यह भी नहीं सोचते कि बरसों पहले उनके पूर्वज भी कहीं बाहर से ही आये होंगे ।
            हर साल देखता हूँ मैं .. छत्तीसगढ़ से न जाने कितने मजदूर रेल में बैठकर खाने-कमाने देश के सुदूर हिस्सों में जाते हैं । उनमें से कितने ही होते हैं जो फिर कभी लौटकर नहीं आते । रेल से यात्रा करते हुए जब भी मैं खिड़की से बाहर झाँकता हूँ तो उन हरे-भरे पेड़ों की ओर देखता हूँ जिनके बीज जाने कहाँ से आये होंगे और अब जो इस मिट्टी में स्थायी हो गये हैं ..। अब यही ज़मीन उनका घर है । फिर यह खयाल भी आता है कि यदि इन्हे इस जगह से उखाड़ कर कहीं और लगा दिया जाये तो क्या वे फिर पनप सकेंगे ? क्या उन्हे उनकी जड़ों से उखाड़ने का यह खेल उन्हे जीवन दे सकेगा ? क्या उन्हे हम वही सब कुछ दे सकेंगे ? वे डूब से विस्थापित हुए लोग हों ,चाहे आतंक से ,चाहे नये कारखाने बसाने के नाम पर उन्हे हटाया जा रहा हो ,चाहे रोजी-रोटी की मजबूरी से वे घर छोड़ रहे हों ..यह सवाल तो उन सभी के लिये है । इसी प्रश्न पर सोचते हुए 15 वर्ष पूर्व इस कविता ने जन्म लिया था ।
              
                                     लोहे का घर-तीन

किसी पौधे को
जड़ से उखाड़कर
कहीं और रोपने से
और उम्मीद मात्र से
क्या वह बन सकेगा
एक छायादार वृक्ष...?


क्या उसे दे सकेंगे हम
वही मिट्टी वही जल
वही धूप धरती और आकाश
क्या उसे हासिल होंगे
दुलारने वाले वही हाथ
और बच्चों और चिड़ियों की
वही चहचहाहट

क्या उसे हम बचा सकेंगे
दीमक ,कीट-पतंगों से
कुल्हाड़ियों से और
विकास के बुलडोज़रों से

लोहे के इस घर में बैठकर
सुरक्षित यात्रा करते हुए
मैं अक्सर सोचता हूँ...

खिड़की से दिखाई देते पेड़
कभी नहीं जान सकते
उखड़े पौधों का दर्द ।

                  -- शरद कोकास   (चित्र गूगल से साभार )
                                                                                           



शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

सुविधा के दिनों में गर्दिश के दिनों की याद पैदा करती है रूमानियत



यह जीवन भी रेल में की गई यात्रा की तरह है जहाँ एक स्टेशन से हम यात्रा प्रारम्भ करते है और किसी एक स्टेशन पर समाप्त करते हैं । प्रारम्भ का स्टेशन तो हमें पता होता है लेकिन गंतव्य के स्टेशन का हमें पता नहीं होता  वह कब आयेगा ..हम सशंकित होकर हर किसी से पूछते हैं , जब यह जवाब मिलता है कि अरे ..अभी तो आपका अंतिम स्टेशन बहुत दूर है तो हम खुश हो जाते हैं । और अगर कोई कह दे कि बस आपका अंतिम स्टेशन आने ही  वाला है तो हम दुखी हो जाते हैं । कई लोग सोचते हैं कि अभी तो हमें बहुत दूर तक यात्रा करनी है वे अचानक किसी स्टेशन पर उतर जाते हैं ..हम सोचते ही रह जाते हैं ..अरे यह तो कहता था बहुत दूर का सफर है बीच में ही उतर गया । कुछ लोग यात्रा करते करते ऊब जाते हैं और सोचते हैं कि यह अंतिम स्टेशन कब आयेगा ? और कुछ अंत तक यात्रा में नहीं ऊबते और खुशी-खुशी आखरी स्टेशन पर उतर जाते हैं ।                                                  
सोचकर देखिये कितना कुछ सोचा जा सकता है इस “लोहे के घर” में यात्रा करते हुए .. इस यात्रा में हम सभी हम सफर हैं । किसीने यात्रा जल्दी शुरू कर दी है किसीने देर से । कोई बीस स्टेशन देख चुका है कोई अठ्ठाइस कोई पचास कोई सत्तर  । जैसे जैसे स्टेशन आयेंगे नये मुसाफिर भी शामिल होते जायेंगे कोई पहले उतर जायेगा कोई देर तक यात्रा करता रहेगा । सबसे महत्वपूर्ण होगा साथ बिताया हुआ समय ..।जब एक न एक दिन आखरी स्टेशन पर उतरना ही है तो  क्यों न करें ऐसा कि हम यह समय इस तरह साथ बितायें कि हमारे स्टेशन पर उतर जाने के बाद भी बचे हुए वे सहयात्री हमे याद रख सकें ।
 अरे.. मैं जिस कविता को यहाँ देने जा रहा था उसका सन्दर्भ तो यह कतई नहीं था .. आप सोच रहे होंगे .. रूमानी होते होते पटरी बदलकर यह  दार्शनिक कैसे हो गया ?, अब क्या करूँ ...लोग सलाह ही इतनी गम्भीर देते हैं । खैर .. इस कविता का सन्दर्भ देने की ज़रूरत ही नहीं आप पढ़ेंगे तो खुद समझ जायेंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूँ ।और यह भी कि इस कविता और पिछली कविता की “रूमानियत “ में क्या फर्क है?

   
लोहे का घर - दो

 
फुटबोर्ड पर लटककर                           
यात्रा करते हुए
याद आती हैं
सुविधाजनक स्थान पर बैठकर
की गई यात्राएँ


आरक्षित बर्थ पर लेटे हुए
याद आती हैं
फुटबोर्ड पर लटक कर
सही जगह की तलाश में
की गई यात्राएँ


उसी तरह जैसे
सुविधाओं से युक्त जीवन में
गर्दिश के दिनों की याद
पैदा करती है रूमानियत ।
             
                -- शरद कोकास 

(चित्र गूगल से साभार )



मंगलवार, नवंबर 17, 2009

स्वप्न देखने के लिये टिकट लेना कतई ज़रूरी नहीं है ।


रात के सन्नाटे में  दूर कहीं किसी रेलगाड़ी की सीटी की आवाज़ सुनाई देती है । एक रेल धड़धड़ाते हुए किसी पुल से गुजर जाती है ..हवा में तैर जाता है एक हल्का सा कम्पन और सन्नाटे में गूंजता है दुश्यंत का यह शेर... ‘तू किसी रेल सी गुजरती है..मै किसी पुल सा थरथराता हूँ ।“
यह थरथराहट अवचेतन में बसे उन तमाम बिम्बों को सतह पर ले आती है जो अपनी बैचलर लाइफ में यात्राएँ करते हुए मैने सहेजे थे । एक रेल थी जो मुझे अपने शहर से दूर ले जाती थी  और फिर कभी वापस लेकर नहीं आती थी । कभी आती भी थी तो फकत छुट्टियों में ..फिर वापस ले जाने के लिये ।
            उन दिनों की स्मृतियों को सहेजता हूँ तो आज भी रेल में बैठते ही रेल का वह डिब्बा मुझे घर जैसा लगने लगता है , मै इसीलिये उसे “ लोहे का घर “ कहता हूँ । आपने भी इस बात को महसूस किया होगा कि यात्रा में जाने कितने परिवार मिल जाते है, कितने मित्र बन जाते है। हम उनसे कितना बतियाते हैं  । बातें करते हुए  अक्सर इतनी अंतरंगता हो जाती है कि जो बातें हम कभी किसी से नहीं कहते ट्रेन में मिले अपने सफर के साथी से कह देते हैं । यह जानते हुए भी हम दोबारा शायद ही कभी मिलें .. लेकिन अपने सुख-दुख बाँटना ,यही तो मनुष्य होना है ।
ऐसी अनेक रेल यात्राएँ मैने की हैं और इन यात्राओं में  अनेक  कवितायें लिखी हैं । “लोहे का घर “ शीर्षक से अलग अलग बिम्बों और चित्रों को लेकर यह कवितायें मेरे कविता संग्रह “गुनगुनी धूप में बैठकर “ में संग्रहित हैं । इस श्रंखला की यह पहली कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ ..कविता ज़रा रूमानी है ..लेकिन मेरी उन दिनों की उम्र का खयाल करके बर्दाश्त कर लीजिये .. और हर्ज़ क्या है आप भी ज़रा सा रूमानी हो जायें ..प्रेम करने और स्वप्न देखने की भी कोई उम्र होती है .भला .?

                        लोहे का घर

सुरंग से गुजरती हुई रेल
बरसों पीछे ले जाती है
उम्र के साथ

बीते सालों के
फड़फड़ाते पन्नों को
खिड़की से आया
पहचानी हवा का झोंका
किसी एक खास पन्ने पर
रोक देता है

एक सूखा हुआ गुलाब का फूल
दुपट्टे से आती भीनी भीनी महक
रात भर जागकर बतियाने का सुख
उंगलियों से इच्छाओं का स्पर्श 

स्वप्न देखने के लिये 
          टिकट लेना 
          कतई ज़रूरी नहीं है । 


               - शरद कोकास


(पिछले दिनो की गई एक यात्रा का चित्र ,इस यात्रा में अचानक बचपन के दो दोस्त मिल गये थे  ..चन्द्रपाल और सूरजपाल दोनों सगे भाई ,मेरी यह तस्वीर चन्द्रपाल ने अपने मोबाइल से ली है )