मंगलवार, नवंबर 17, 2009

स्वप्न देखने के लिये टिकट लेना कतई ज़रूरी नहीं है ।


रात के सन्नाटे में  दूर कहीं किसी रेलगाड़ी की सीटी की आवाज़ सुनाई देती है । एक रेल धड़धड़ाते हुए किसी पुल से गुजर जाती है ..हवा में तैर जाता है एक हल्का सा कम्पन और सन्नाटे में गूंजता है दुश्यंत का यह शेर... ‘तू किसी रेल सी गुजरती है..मै किसी पुल सा थरथराता हूँ ।“
यह थरथराहट अवचेतन में बसे उन तमाम बिम्बों को सतह पर ले आती है जो अपनी बैचलर लाइफ में यात्राएँ करते हुए मैने सहेजे थे । एक रेल थी जो मुझे अपने शहर से दूर ले जाती थी  और फिर कभी वापस लेकर नहीं आती थी । कभी आती भी थी तो फकत छुट्टियों में ..फिर वापस ले जाने के लिये ।
            उन दिनों की स्मृतियों को सहेजता हूँ तो आज भी रेल में बैठते ही रेल का वह डिब्बा मुझे घर जैसा लगने लगता है , मै इसीलिये उसे “ लोहे का घर “ कहता हूँ । आपने भी इस बात को महसूस किया होगा कि यात्रा में जाने कितने परिवार मिल जाते है, कितने मित्र बन जाते है। हम उनसे कितना बतियाते हैं  । बातें करते हुए  अक्सर इतनी अंतरंगता हो जाती है कि जो बातें हम कभी किसी से नहीं कहते ट्रेन में मिले अपने सफर के साथी से कह देते हैं । यह जानते हुए भी हम दोबारा शायद ही कभी मिलें .. लेकिन अपने सुख-दुख बाँटना ,यही तो मनुष्य होना है ।
ऐसी अनेक रेल यात्राएँ मैने की हैं और इन यात्राओं में  अनेक  कवितायें लिखी हैं । “लोहे का घर “ शीर्षक से अलग अलग बिम्बों और चित्रों को लेकर यह कवितायें मेरे कविता संग्रह “गुनगुनी धूप में बैठकर “ में संग्रहित हैं । इस श्रंखला की यह पहली कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ ..कविता ज़रा रूमानी है ..लेकिन मेरी उन दिनों की उम्र का खयाल करके बर्दाश्त कर लीजिये .. और हर्ज़ क्या है आप भी ज़रा सा रूमानी हो जायें ..प्रेम करने और स्वप्न देखने की भी कोई उम्र होती है .भला .?

                        लोहे का घर

सुरंग से गुजरती हुई रेल
बरसों पीछे ले जाती है
उम्र के साथ

बीते सालों के
फड़फड़ाते पन्नों को
खिड़की से आया
पहचानी हवा का झोंका
किसी एक खास पन्ने पर
रोक देता है

एक सूखा हुआ गुलाब का फूल
दुपट्टे से आती भीनी भीनी महक
रात भर जागकर बतियाने का सुख
उंगलियों से इच्छाओं का स्पर्श 

स्वप्न देखने के लिये 
          टिकट लेना 
          कतई ज़रूरी नहीं है । 


               - शरद कोकास


(पिछले दिनो की गई एक यात्रा का चित्र ,इस यात्रा में अचानक बचपन के दो दोस्त मिल गये थे  ..चन्द्रपाल और सूरजपाल दोनों सगे भाई ,मेरी यह तस्वीर चन्द्रपाल ने अपने मोबाइल से ली है )








34 टिप्‍पणियां:

  1. कोकास जी, हर बार की तरह उम्दा..बेहद उम्दा रचना...मन करता है हर पंक्तियाँ कोट कर दूं...!!!

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  2. Rochak prasang bhaaisaab, aur kavita ke kya kahne... 2 chatke laga diye hain.......... :)
    Jai Hind...

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  3. मैं जानता हूं के तू गैर है मगर यूहीं,
    कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है...


    (शरद जी, माफी चाहूंगा...कुछ ज़्यादा व्यस्तता के चलते टिप्पणियों में नियमित नहीं हो पा रहा)
    जय हिंद...

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  4. दुष्यंत साब का के इस शेर को तो शायद हमारी वाली पूरी पीढ़ी गुनगुनाते हुये बड़ी हुई है...

    कविता प्यारी सी...कुछ ऐसी कि एकदम से कितनी ही ट्रेन यात्राओं के उन तमाम इकतरफे{शायद इक्का-दुक्का दो तरफे भी} क्षणिक प्रेम-प्रसंगों की याद दिला गयी।

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  5. शरद कोकास जी, आज आप ने बरसो पीछे की याद ताजा कर दी, बहुत सुंदर.
    धन्यवाद

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  6. टिकट बेशक न लगते हो पर स्वप्न चुरा लिये जाते है
    इसलिये जरा बच कर ---

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  7. इस कविता में बहुत बेहतर, बहुत गहरे स्तर पर एक बहुत ही छुपी हुई करुणा और गम्भीरता है।

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  8. वाह!! बेटिकट यात्रा का आनन्द दे गई कविता...और अभी तो आप जवान है मियाँ..आपसे रुमानी कविताओं की ही उम्मीद है...कृप्या ध्यान रखिये अगले ३०-४० बरस तक!! फिर जो जी आये, लिखियेगा.

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  9. इन सपनों को सच बनाने के लिए टिकिट खरीदने में उम्र गुजर जाती है।

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  10. रेल के अन्दर के खेल को कम शब्दों में रखा |

    धन्यवाद ... ...

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  11. लोहे का घर मे सचमुच ऐसा ही होता है सटीक है ,सपने देखने के लिए टिकट लेना कत्ई जरूरी नहीं -बहुत सुन्दर यह लोहे का घर ,यह कविता , आभार।

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  12. एक सुन्दर लेख और कविता कोकाश साहब ! मगर अब आपने इसे भी प्रकाश में ला दिया है, अगर चिदंबरम जी को दुबारा वित् मंत्रालय संभालने का सुअवसर मिला तो इस पर भी सर्विस टैक्स लगा देंगे !

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  13. दुपट्टे से आती भीनी भीनी महक
    रात भर जागकर बतियाने का सुख,

    शरद भैया, जब ऐसी ही बात है तो उधारी टिकिट लेने मे भी कोई हर्ज नही है,

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  14. अब समझ मे आया कि हम रुमानी क्यों नही हो पाए?रेल मे सफ़र बहुत समय से नही किया,सच मे ये लोहे का घर,घर क्या पूरा मुह्ल्ला लगता है,कुछ जाने-कुछ अंजाने चेहरे एक साथ्…………… बहुत सुन्दर रचना,शरद भाई वैसे अभी भी आप बुढऊ तो नही लगते हो।हा हा हा हा।

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  15. 'लोहे का घर 'कविता अच्छी लगी.
    'सिर्फ जागी आँखों से देखे जाने वाले स्वप्नों के लिए टिकट की जरुरत नहीं होती.अन्यथा तो सपनो के लिए नींद का टिकट होना ज़रूरी है.'

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  16. बीते सालों के
    फड़फड़ाते पन्नों को
    खिड़की से आया
    पहचानी हवा का झोंका
    किसी एक खास पन्ने पर
    रोक देता है ...

    bahut hi kamaal ki rachna lagi Sharad bhai ... bahut si komal raadon ka sparsh kara diya aaone ...

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  17. लोहे का घर... पर सांस लेती सफ़र करते जान... गोया पूरी कविता ही बेजोड़ है...

    एक सूखा हुआ गुलाब का फूल
    दुपट्टे से आती भीनी भीनी महक
    रात भर जागकर बतियाने का सुख
    उंगलियों से इच्छाओं का स्पर्श

    ... यह भूल रहा था "आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया."

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  18. घर के इस नियत और ठोस आकार में कितनी तरलता है। बहुत सुंदर।

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  19. अरे ये तो बहुत बढिया कविता है...नाज़ुक सी. और दुष्यंत कुमार..."साये में धूप" की गज़लें तो साथ-साथ चलतीं हैं..एक बात और, तस्वीर तो बडी स्मार्ट है आपकी.

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  20. उंगलियों से इच्छाओं का स्पर्श
    waah kya pankti hai..........bahut hi sundarta se bhavnaon ko ukera hai.

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  21. कविता बहुत सुन्दर और गंभीरता लिए हुए है

    आभार

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  22. एक सूखा हुआ गुलाब का फूल
    दुपट्टे से आती भीनी भीनी महक
    रात भर जागकर बतियाने का सुख
    उंगलियों से इच्छाओं का स्पर्श...
    kya lines hain sir...
    mast...
    maza aa gaya..

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  23. स्वप्न देखने के लिये
    टिकट लेना
    कतई ज़रूरी नहीं है ।

    एकदम सही.
    इसीलिए तो हम जागते हुए भी स्वपन देखते हैं.

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  24. बहुत ही सजीव चित्रण है उस 'लोहे के घर' में धड़कते अहसासों का.....एक बहुत ही ख़ूबसूरत फिल्म याद आ गयी..Mr. n Mrs. Aiyer

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  25. क्षणों को बयां करती और बहुत कुछ अनबयां रह जाती अभिवयक्ति !

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  26. स्वप्न देखने के लिये
    टिकट लेना
    कतई ज़रूरी नहीं है ।

    एक आदमी: भाई अमेरिका जाने कि सोच रहा हूँ कितना पैसा लगेगा?
    दूसरा: एक धेला भी नहीं
    पहला: क्यूँ भला?
    दूसरा: सोचने का कोई पोसा नहीं लगता...



    बीते सालों के
    फड़फड़ाते पन्नों को
    खिड़की से आया
    पहचानी हवा का झोंका
    किसी एक खास पन्ने पर


    ये लाइन बेहतेरीन थी...
    कभी लिखा था...

    मेरी डायरी का नीला १७ अप्रैल,
    तुम्हारी स्क्रैपबुक के गुलाबी पन्नों के बीच रहता है अब,

    वाकई कुछ पन्ने किस तरह bookmark हो जाते हैं naa?

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  27. सचमुच स्वप्न देखने के लिए टिकट की आवश्यकता नहीं है ...जैसे रूमानी होने के लिए उम्र की ...!!

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  28. स्वप्न देखने के लिये
    टिकट लेना
    कतई ज़रूरी नहीं है ।

    bas neend jaroori hai.....

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  29. भाई शरद कोकासजी,
    आपका ब्‍लॉग देखा. बहुत ही अच्‍छा है. बधाई.
    साथ ही
    कथादेश में आपकी कविताओं की प्रतीक्षा है. प्रकाशन की सूचना ताजे अंक में पढ़ी.
    शुभकामनाओं सहित...

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  30. बीते सालों के

    फड़फड़ाते पन्नों को

    खिड़की से आया

    पहचानी हवा का झोंका

    किसी एक खास पन्ने पर

    रोक देता है
    - -वाह कमाल की अभिव्यक्ति
    लोहे के घर ने साहित्य को बहुत कुछ दिया है।

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  31. lohe ka ghar , mera ghar, sans leta loha. saans leta ghar.
    पहचानी हवा का झोंका
    koti koti dhanyawad bhaiya....... kuch yaaden lautane ke liye
    satya vyas

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  32. स्वप्न देखने के लिये
    टिकट लेना
    कतई ज़रूरी नहीं है ।

    बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द जिनसे मिलकी हर पंक्ति बेहतरीन और लाजबवा ।

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