शुक्रवार, दिसंबर 24, 2010

वह सचमुच अभी बच्चा है ।

सर्दियों की रात में अजीब सी खामोशी सब ओर व्याप्त होती है । टी.वी. और कम्प्यूटर और पंखे बंद हो जाने के बाद बिस्तर पर लेटकर कुछ सुनने की कोशिश करता हूँ ।  हवा का कोई हल्का सा झोंका कानों के पास कुछ गुनगुना जाता है । गली से गुजरता है कोई शख्स गाता हुआ ...आजा मैं हवाओं में उठा के ले चलूँ ..तू ही तो मेरी दोस्त है । मैं सोचता हूँ मेरा दोस्त कौन है ..यह संगीत ही ना जो रात दिन मेरे कानों में गूँजता रहता है । संगीत के दीवानों के लिये  दुनिया की हर आवाज़ में शामिल होता है संगीत .. ऐसे ही कभी दीवाने पन में मैंने भी कोशिश की थी इस संगीत को तलाशने की । मेरी वह तलाश इस कविता में मौज़ूद है जो मैंने शायद युद्ध के दिनों में लिखी थी ... 

संगीत की तलाश

मैं तलाशता हूँ संगीत
गली से गुजरते हुए
तांगे में जुते घोड़े की टापों में

मैं ढूँढता हूँ संगीत
घन चलाते हुए
लुहार के गले से निकली हुंकार में

रातों को किर्र किर्र करते
झींगुरों की ओर
ताकता हूँ अन्धेरे में
कोशिश करता हूँ सुनने की
वे क्या गाते हैं

टूटे खपरैलों के नीचे रखे
बर्तनो में टपकने वाले
पानी की टप-टप में
तेली के घाने की चूँ-चूँ चर्र चर्र में
चक्की की खड़-खड़ में
रेलगाड़ी की आवाज़ में
स्वर मिलाते हुए
गाता हूँ गुनगुनाता हूँ

टूट जाता है मेरा ताल
लय टूट जाती है
जब अचानक आसमान से
गुजरता है कोई बमवर्षक
वीभत्स हो उठता है मेरा संगीत
चांदमारी से आती है जब
गोलियाँ चलने की आवाज़
मेरा बच्चा इन आवाज़ों को सुनकर
तालियाँ बजाता है
घर से बाहर निकलकर
देखता है आसमान की ओर
खुश होता है

वह सचमुच अभी बच्चा है ।

             -- शरद कोकास

रविवार, दिसंबर 12, 2010

दोस्त ! प्रेम के लिये वर्ग दृष्टि ज़रूरी है

" झील ने मनाही दी है अपने पास बैठने की  " से लेकर " झील ने मनाही दी है अपने बारे में सोचने की " तक बहुत कुछ घटित हो चुका है । प्रेम में सोचने पर भी प्रतिबन्ध..? ऐसा तो कभी देखा न था ..और उस पर संस्कारों की दुहाई ..। और उसका साथ देती हुई पुरानी विचारधारा ..कि प्रेम करो तो अपने वर्ग के भीतर करो.. । लेकिन ऐसा कभी हुआ है ? ठीक है , प्यार के बारे में सोचने पर प्रतिबन्ध है, विद्रोह के बारे में सोचने पर तो नहीं । फिर वह विद्रोह आदिम संस्कारों के खिलाफ हो , दमन के खिलाफ हो या अपनी स्थितियों के खिलाफ़ ..।  देखिये " झील से प्यार करते हुए " कविता श्रंखला की अंतिम कविता में यह कवि क्या कह रहा है ...  

 झील से प्यार करते हुए –तीन

झील की सतह से उठने वाले बादल पर
झील ने लिखी थी कविता
मेरी उन तमाम कविताओं के ऐवज में
जो एक उदास दोपहरी को
झील के पास बैठकर
मैने उसे सुनाई थीं

कविता में थी
झील की छटपटाहट

मुझे याद है झील डरती थी
मेरे तलवार जैसे हाथों से
उसने नहीं सोचा होगा
हाथ दुलरा भी सकते हैं

अपने आसपास
उसने बुन लिया है जाल संस्कारों का
उसने मनाही दी है अपने बारे में सोचने की
जंगल में बहने वाली हवा
एक अच्छे दोस्त की तरह
मेरे कानों में फुसफुसाते हुए गुज़र जाती है
दोस्त ! प्रेम के लिये वर्ग दृष्टि ज़रूरी है

मैं झील की मनाही के बावज़ूद
सोचता हूँ उसके बारे में
और सोचता रहूंगा
उस वक़्त तक
जब तक झील
नदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ ।

                        शरद कोकास 
  
( स्पार्टकस और उसकी प्रेमिका वारीनिआ  के चित्र गूगल से साभार )

शनिवार, नवंबर 27, 2010

झील रात भर नदी बनकर मेरे भीतर बहती है

झील से प्यार करते हुए कविता श्रंखला की पहली कविता आप सबने पढ़ी । बहुत बहुत धन्यवाद । इस कविता के अर्थ का भी आपने विश्लेषण किया . किसी ने इसे पानी वाली झील समझा किसी ने विचारों की झील ... । प्रस्तुत है इस श्रंखला की यह दूसरी कविता । इस कविता में आपको  झील  कुछ और नये बिम्बों में नज़र आयेगी ....नौकरी ,  दफ्तर,  ज़िन्दगी और प्रेम के कुछ अलग चित्र नज़र आयेंगे ...
इस कविता श्रंखला पर प्रसिद्ध आलोचक डॉ. कमला प्रसाद की टिप्पणी - " शरद कोकास की कविताओं में दफ्तरों के अनुभव जगह जगह आते हैं , नींद आने के पूर्व मानस में मचलते हैं . दिमागी गतिविधियों में जगह बना लेते हैं । वे झील को नदी देखना चाहते हैं अर्थात ठहरी गहराई काफी नहीं , उसमें प्रवाही सहजता और निर्मलता की ज़रूरत है । ऐसी पदावली उभरती है कविताओं में.....।  प्रस्तुत कविता मेरे कविता संग्रह " गुनगुनी धूप में बैठकर " से ......


 झील से प्यार करते हुए –दो

वेदना सी गहराने लगती है जब
शाम की परछाईयाँ
सूरज खड़ा होता है
दफ्तर की इमारत के बाहर
मुझे अंगूठा दिखाकर
भाग जाने को तत्पर

फाइलें दुबक जाती हैं
दराज़ों की गोद में
बरामदा नज़र आता है
कर्फ्यू लगे शहर की तरह

ट्यूबलाईटों के बन्द होते ही
फाइलों पर जमी उदासी
टपक पड़ती है मेरे चेहरे पर

झील के पानी में होती है हलचल
झील पूछती है मुझसे
मेरी उदासी का सबब
मैं कह नहीं पाता झील से
आज बॉस ने मुझे गाली दी है

मैं गुज़रता हूँ अपने भीतर की अन्धी सुरंग से
बड़बड़ाता हूँ चुभने वाले स्वप्नों में
कूद पड़ता हूँ विरोध के अलाव में
शापग्रस्त यक्ष की तरह
पालता हूँ तर्जनी और अंगूठे के बीच
लिखने से उपजे फफोलों को

झील रात भर नदी बनकर
मेरे भीतर बहती है
मै सुबह कविता की नाव बनाकर
छोड़ देता हूँ उसके शांत जल में
वैदिक काल से आती वर्जनाओं की हवा
झील के जल में हिलोरें पैदा करती है  
डुबो देती है मेरी कागज़ की नाव

झील बेबस है
मुझसे प्रेम तो करती है
लेकिन हवाओं पर उसका कोई वश नहीं है । 

                                      - शरद कोकास 
( सभी चित्र गूगल से साभार ) 

रविवार, नवंबर 21, 2010

झील ने मनाही दी है अपने पास बैठने की


यह इंसान की ही फितरत है कि वह हर दुनियावी और दुनिया से बाहर की चीज़ की अपने अनुसार परिभाषा गढ़ लेता है । प्रेम के बारे में भी उसका यही सोचना है । फैज़ कहते हैं " मेरे महबूब मुझसे पहली सी मोहब्बत न मांग, और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा । " लेकिन इंसान की विवशता यह है कि वह इन दुखों से भी लड़ता है और मोहब्बत भी करता है । शायद यह मोहब्बत ही उसे दुखों से लड़ने की ताकत देती है । इस मोहब्बत को अंजाम तक पहुँचाने के लिये वह अपने आप से लड़ता है ,अपने महबूब से लड़ता है गोया कि सारी दुनिया से लड़ता है , कभी आँसू बहाता है , कभी खुश होता है , और यह कश्मकश लगातार चलती है ... लेकिन वह अंत तक नहीं समझ पाता कि इसी कश्मकश का नाम ही तो प्रेम है  । प्रस्तुत है " झील से प्यार करते हुए " कविता श्रंखला की यह एक प्रेम कविता  , मेरे कविता संग्रह " गुनगुनी धूप में बैठकर " से

 झील से प्यार करते हुए – एक

झील की ज़ुबान ऊग आई है
झील ने मनाही दी है अपने पास बैठने की
झील के मन में है ढेर सारी नफरत
उन कंकरों के प्रति
जो हलचल पैदा करते हैं
उसकी ज़ाती ज़िन्दगी में
झील की आँखें होती तो देखती शायद
मेरे हाथों में कलम है कंकर नहीं
           
झील के कान ऊग आये हैं
बातें सुनकर
पास से गुजरने वाले
आदमकद जानवरों की
मेरे और झील के बीच उपजे
नाजायज प्रेम से
वे ईर्ष्या करते होंगे

वे चाहते होंगे
कोई इल्ज़ाम मढना
झील के निर्मल जल पर
झील की सतह पर जमी है
खामोशी की काई 
झील नहीं जानती
मै उसमें झाँक कर
अपना चेहरा देखना चाहता हूँ

बादलों के कहकहे
मेरे भीतर जन्म दे रहे हैं
एक नमकीन झील को
आश्चर्य नहीं यदि मैं एक दिन
नमक के बड़े से पहाड़ में तब्दील हो जाऊँ । 

                            - शरद कोकास 

बुधवार, नवंबर 10, 2010

बच्चों पर लिखी कवितायें जो बड़ों के लिये हैं

14 नवम्बर को फिर बाल दिवस मनाने की औपचारिकता पूर्ण करनी है । बच्चों के लिये बड़ी बड़ी बातें सोचनी हैं , रैली भी निकालनी है , भाषण भी देना है , आज के बच्चों को कल का नागरिक बताते हुए उनके कन्धों पर देश का भार सौंपने की तैयारी करनी है । शालाओं में प्रतियोगितायें आयोजित करनी हैं , बच्चों पर एक ब्लॉग भी लिखना है .... कितने सारे काम हैं ।
मैं इनमें से कुछ नहीं करने वाला । कवि हूँ , बस कवितायें लिख रहा हूँ । सोचा था कोई नई कविता लिखूँगा  लेकिन .. खैर छोड़िये , पुरानी कविताओं में से बच्चों पर लिखी यह दो कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ । कवितायें थोड़ी कठिन हैं इसलिये कि लिखी भले ही बच्चों पर हों , दरअसल यह कवितायें बड़ों के लिये हैं ।

1   बच्चा अपने सपनों में राक्षस नहीं होता 

बच्चों की दुनिया में शामिल हैं
आकाश में
पतंग की तरह उड़ती उमंगें
गर्म लिहाफ में दुबकी
परी की कहानियाँ
लट्टू की तरह
फिरकियाँ लेता उत्साह

वह अपनी कल्पना में
कभी होता है
परीलोक का राजकुमार
शेर के दाँत गिनने वाला
नन्हा बालक भरत
या उसे मज़ा चखाने वाला खरगोश

लेकिन कभी भी
बच्चा अपने सपनों में
राक्षस नहीं होता ।

    2        ईश्वर यहीं कहीं प्रवेश करता है

पत्थर को मोम बना सकता है
बच्चे की आँख से ढलका
आँसू का बेगुनाह कतरा

गाल पर आँसू की लकीर लिये
पाँव के अंगूठे से कुरेदता वह
अपने हिस्से की ज़मीन
 
भिंचे होंठ तनी भृकुटी
हाथ के नाखूनो से
दीवार पर उकेरता
आक्रोश के टेढ़े- मेढ़े चित्र

भय की कश्ती पर सवार होकर
पहुँचना चाहता वह
सर्वोच्च शक्ति के द्वीप पर

बच्चे के कोरे मानस में
ईश्वर यहीं कहीं प्रवेश करता है ।

                        - शरद कोकास 

 

रविवार, अक्तूबर 17, 2010

उम्मीद नहीं छोड़ती कवितायें ... बुदबुदाती हैं धन्यवाद ! धन्यवाद !


8 अक्तूबर से 16 अक्तूबर 2010 तक ब्लॉग “ शरद कोकास “ पर चलने वाले इस नवरात्र कविता उत्सव मे आपने डोगरी कवयित्री पद्मा सचदेव , तेलुगु कवयित्री वरिगिंड सत्य सुरेखा (अनुवाद आर शांता सुन्दरी) ,असमिया कवयित्री निर्मल प्रभा बोरदोलोई (अनुवाद सिद्धेश्वर सिंह ) ,मराठी कवयित्री ज्योती लांजेवार ( अनुवाद शरद कोकास ) , मैथिली कवयित्री शेफालिका वर्मा , मलयाळम कवयित्री सुगत कुमारी ( अनुवाद जी. बालकृष्ण पिल्लै) ,ओड़िया कवयित्री प्रतिभा शतपथी ( अनुवाद राजेन्द्र प्रसाद मिश्र ) , सिन्धी कवयित्री विम्मी सदारंगाणी तथा बांगला कवयित्री जया मित्र ( अनुवाद नीता बनर्जी) की कविताएँ और उनके अनुवाद पढ़े ।
इस कविता उत्सव में अनेक पाठकों , कविता प्रेमियों , कवि और ब्लॉगर्स ने अपनी भागीदारी दर्ज की ।
            8 अक्तूबर 2010 को प्रकाशितपद्मा सचदेव की कविता के बारे में गिरीश पंकज कहते हैं स्त्री लेखन की सही दिशा क्या हो सकती है , यह कविता तय करती है । रूपचन्द शास्त्री मयंक ने कहा यह परिवेश का सुन्दर चित्रण करती है । संगीता ने कहा पद्मा जी के बारे में जानना ,उन्हे पढ़ना सुखद अनुभूति है । रश्मि रविजा ने कहा पद्मा जी की रचना बहुत दिनों बाद पढी । सुशीला पुरी ने कहा यह कविता कई सवाल खड़े करती है । सागर ने इसे आज के संदर्भ में अच्छी कविता बताया । रन्जू भाटिया ने कहा पद्मा जी को पढ़ना अच्छा लगा । शिखा वार्ष्णेय ने कहा इस कविता की एक एक पन्क्ति छू जाती है । शोभना चौरे ने कहा पद्माजी उनकी पसन्दीदा कवयित्री हैं ।ताऊ रामपुरिया ने कहा कि इस कविता में पद्मा जी की खासियत के अनुरूप एक एक शब्द है । डॉ. टी एस दराल ने पद्मा जी से इस शृंखला के श्रीगणेश को बेहतर बताया । महेन्द्र वर्मा ने पद्मा जी के धर्मयुग में प्रकाशन के दिनों की बात की । जे पी तिवारी , मनोज ,बबली ,कविता रावत ,सुज्ञ , अली ,राज भाटिया , देवेन्द्र पाण्डे , संजीव तिवारी ,वाणी गीत ,संजय भास्कर को यह कविता पसन्द आई । परमजीत सिंह बाली , अलबेला खत्रीडॉ. मोनिका शर्मा को ने इसे अच्छी प्रस्तुति बताया । 
                        9 अक्तूबर 2010 को  प्रकाशित वरिगोंड सत्य सुरेखा की तेलुगु कविता पर बहुत सारी प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं । प्रवीण त्रिवेदी ने कहा सच है इन प्रश्नों के जवाब नहीं ही मिलने वाले  मनोज कुमार ने कहा हँसी हँसी में गहरी बात कह दी गई है ।रावेन्द्र कुमार रवि ने कहा कि यह महसूस करने की बात है कि प्रश्नकर्ता और उत्तर न देने वाले की हँसी में क्या अंतर है ।इस्मत ज़ैदी ने कविता में प्रश्नों के उत्तर ढूँढने के इस प्रयास को सराहनीय बताया निशांत ने कहा चलानो वालो से बड़े उनसे भी बड़े चलाने वाले । एस एम मासूम, पारुल ,अजय कुमार ,देवेन्द्र पाण्डेय ,राज भाटिया ,ज्योति सिंह ,पूनम श्रीवास्तव,दीपक बाबा को यह कविता पसंद आई । संगीता स्वरूप ने कहा कि कवयित्री ने मन की वेदना कह दी है । वन्दना ने इसे सार्थक अभिव्यक्ति कहा और शाहिद मिर्ज़ा ने कहा कि सवाल जवाब का यह सिलसिला कभी नही थमेगा । शोभना चौरे ने कहा इस पीड़ा को अंतर्मन से समझने की कोशिश रही हूँ ।रश्मि रविजा ने कहा कि जवाब किसीके पास नहीं है इसलिये लोग सवालों पर हँस पड़ते हैं । सुशीला पुरी ने कहा कि विवशता में भी हँसकर खुद को बहलाया जा सकता है ।वाणी गीत ने कहा कि सवाल का जवाब भी अगर सवाल है तो हँसने के सिवा क्या किया जा सकता है ।महेन्द्र वर्मा ने चांद और डर के अनूठे बिम्ब का ज़िक्र किया । समीर लाल ने कहा कि पीड़ा का चरम भी अक्सर हँसी में तब्दील होते देखा है । राहुल सिंह ने कहा जग ह कहत भगत बहिया ,भगत ह कहत जगत बहिया .। एक ब्लॉगर की टिप्पणी बहुत दिनों बाद मिली ..कोपल कोकास ने कहा हँसने वालों को देखकर हँसी रोकना मुश्किल है तो हँसना ही बेहतर है । उत्तम राव क्षीरसागर ने इसे अपने उद्देशय में सफल कविता बताया । गत वर्ष 19 सितम्बर 2009 से 27 सितम्बर 2009 तक के शारदीय नवरात्र कविता उत्सव में शामिल श्री पी सी गोदियाल , दिनेश राय द्विवेदी , निर्मला कपिला अशोक कुमार पाण्डेय,मिथिलेश दुबे, मीनू खरे, विनोद कुमार पाण्डेय , समयचक्र, हेमंत कुमार ,टी एस दराल,भूतनाथ, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, विनीता यशस्वी , मिता दास ,लावण्या शाह ,पंकज नारायण और कुलवंत हैप्पी को भी मैंने याद किया  ।   
            10 अक्तूबर 2010 को प्रकाशित  असमिया कवयित्री निर्मलाप्रभा बोरदोलोई की कविता के पाठकों के रूप में फिर कुछ नये लोगों का आगमन हुआ । उन सभी का मैंने स्वागत किया । उनके उद्धरण इस प्रकार हैं । डॉ.नूतन नीति ने कहा इच्छा अंतस मन बेहद अच्छी लगी । शाहिद मिर्ज़ा ने कहा कि दोनों कवितायें मर्मस्पर्शी हैं । डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक एवं उपेन्द्र जी ने मूल कविता का भाव हूबहू कविता में उतारने के लिए  अनुवादक  सिद्धेश्वर जी की प्रशंसा की । संगीता स्वरूप ने इन्हे अतीत से जुड़ती भविष्य की कविता निरूपित किया । देवेन्द्र पाण्डेय ,राज भाटिया , काजल कुमार और कुसुम कुसुमेश जी को कवितायें अच्छी लगीं । राजेश उत्साही ने अपनी विस्तृत टिप्पणी में कहा कि ब्लॉग में अच्छे पाठक कैसे तैयार हों इस दिशा में सोचना ज़रूरी है । महेन्द्र वर्मा ने कहा कि सिद्धेश्वर जी ठीक कहते हैं अच्छी कविता ठहराव चाहती है । दिगम्बर नासवा ने इन्हे कम शब्दों में गहरी वेदना व्यक्त करने वाली कवितायें कहा ।वन्दना जी ने इन्हे स्त्री मन की अंतर्वेदना व्यक्त करने वाली कवितायें कहा और इस पोस्ट को चर्चा मंच में शमिल करने की सूचना दी । वन्दना अवस्थी दुबे ने कविताओं के परिप्रेक्ष्य में कहा कि ऐसा हमारे पास क्या है जिसे हम यादों के रूप में सहेज जायें ।डॉ. टी एस.दराल ने दुख को मर्मस्पर्शी तथा इच्छा को सचेत करती प्रेरणात्मक रचना बताया ।डॉ. मोनिका शर्मा , उस्ताद जी और  ZEAL को यह कवितायें अच्छी लगीं ।प्रज्ञा पाण्डेय ने इसे मन को मथने वाली कविता कहा और सुशीला पुरी ने कहा कि कवयित्री की इच्छा समूचे विश्व से जोड़ती है ।बहुत दिनो बाद पधारी आशा जोगलेकर ने कहा सिद्धेश्वर जी ने कविता की आत्मा अक्षुण्ण रखी है। रावेन्द्र कुमार संजय भास्कर व अजय कुमार ने भी अपनी उपस्थिति  दर्ज कराई ।
                        11 अक्तूबर को प्रकाशित  ज्योती लांजेवार की मराठी कविता पर अनेक सुधि पाठकों की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई । इन प्रतिक्रियाओं से एक एक पंक्ति उद्धृत  कर रहा हूँ । इन्हे अवश्य पढ़िये । देवेन्द्र पाण्डेय - वेदना की गन्ध को एक क्षण बसा लेने की आकांक्षा अधुत अहसास कराती है । पद्म सिंह - बहुत अच्छी तरह उकेरे गये भाव । ललित शर्मा - बेहतरीन रचना और अनुवाद । इस्मत ज़ैदी - कोमल भावों की व्याख्या करती सुन्दर रचना ।  संगीता स्वरूप ,एस एम मासूम -स्नेहिल स्पर्श के महत्व को बताती सुन्दर रचना । के के यादव- मराठी ने ही सर्वप्रथम दलित साहित्य को ऊँचाइयाँ दीं । डॉ.मोनिका शर्मा -प्रभावी और भावपूर्ण रचना । उस्ताद जी -बोझिल । वन्दना -बहुत सुन्दर अनुवाद । सिद्धेश्वर सिंह -एक अच्छी कविता पढ़ने के सुख में हूँ । रंजू भाटिया - अनुवाद बहुत अच्छा किया है आपने । सुशीला पुरी -  प्रेम भी एक तरह का युद्ध है । महेन्द्र वर्मा -  अपने प्रिय से गहन आत्मीयता को अभिव्यक्त करती कविता । पी एन सुब्रमनियन - अनुवाद में मूल भावनाओं को समेटना बहुत कठिन होता है । मनोज कुमार - कविता भाषा शिल्‍प और भंगिमा के स्‍तर पर समय के प्रवाह में मनुष्‍य की नियति को संवेदना के समांतर, दार्शनिक धरातल पर अनुभव करती और तोलती है मुक्ति - दलित कवियत्रियों की कविताओं में एक वेदना तो होती ही है । संजय भास्कर  - मूल भाव अभियव्यक्ति लाजवाब है । शाहिद मिर्ज़ा  - आपके अनुवाद से आया निखार चार चांद लगा रहा है । शिखा वार्ष्णेय - कविता में पवन के माध्यम से वेदना को उकेरना बहुत प्रभावी लगा । ज्योति सिंह -पवन के मध्यम से गहरी बात कही गई है ।  वाणी गीत - सदियों से हाशिये पर रहे लोगों के लिए प्रेम सिर्फ रोमांस नहीं हो सकता आकांक्षा - सुन्दर कविता. और सार्थक अनुवाद रश्मि रविजा - किसी भी वेदना को स्नेहिल स्पर्श की आकांक्षा जरूर होती है डॉ. टी एस दराल - अनुवाद में किये गए शब्दों के प्रयोग दिलचस्प हैं  समीर लाल - प्रेम की वेदना...अनुवाद में भी वही प्रवाह...और भावों की महक ! कैलाश - मराठी की दलित प्रेम कविता को प्रस्तुत करने के लिए आपका शुक्रियाराजेश उत्साही - अनुवाद और सहज और सरल हो सकता थाडॉ. रूपचन्द शास्त्री - शब्दों के मोतियों को टाँकने मे आपने कमाल किया है । रचना दीक्षित - सचमुच खूबसूरत कविता । zeal - परिचय करवाने का आभार और बेहतरीन अनुवाद के लिए आपको बधाई राज भाटिया - बहुत अच्छी कविता जी । रावेन्द्रकुमार रवि - उपस्थित श्रीमानउत्तम राव क्षीर सागर - अंति‍म पद की पहली पंक्‍ति‍ खटकती है मेरे हि‍साब से यह 'अपने भीतर बसा लेना उसे' होती शोभना चौरे - मराठी से हिंदी अनुवाद सुन्दर है | वन्दना अवस्थी दुबे -कितनी मासूम इच्छा है!!! बहुत सुन्दर
12 अक्तूबर 2010 को प्रकाशित  शेफालिकावर्मा की मैथिली कविता पर बहुत सारे नये पाठकों ने अपनी प्रतिक्रिया प्रकट की । जबलपुर से हमारे पुराने साथी महेन्द्र मिश्र ने कहा शेफालिका वर्मा जी की रचना बहुत जोरदार है मिता दास ने कहा साँस लेना ही ज़िन्दगी नहीं । रंजू भाटिया - बहुत सुन्दर । आकांक्षा - शेफालिका वर्मा जी की रचना लाजवाब है । डॉ. मोनिका शर्मा -बहुत अच्छी रचना साझा की है आपने ।  संजय भास्कर - शेफालिका वर्मा जी से मिलवाने के लिए धन्यवाद । वन्दना - कविता एक सार्थक सन्देश दे रही है । वाणी गीत-जीवन की सार्थकता पर अच्छी कविता । इस्मत ज़ैदी - बहुत सुन्दर भावों के साथ संस्कारों की सीख देती रचना  सदा - बहुत ही सुन्दर व प्रेरक प्रस्तुति । रश्मि रविजा - जीने का अर्थ तलाशने की सीख देती सुन्दर कविता । महेन्द्र वर्मा - यह कविता कवयित्री के दार्शनैक दृष्टिकोण को सफलता पूर्वक अभिव्यक्त करती है । सुशीला पुरी - एक दूसरे के आँसू पोछने मे ही जीने की सार्थकता है । शोभना चौरे -सूरज बादल के माध्यम से शेफाली जी ने बहुत प्रेरक बात कही है ।  जयकृष्ण राय तुषार- बहुत सुन्दर रचना । डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक - इस सोद्देश्य रचना को पढ़वाने के लिए धन्यवाद । शिखा वार्ष्णेय - शेफलिका जी की रचना मे जीवन की सार्थकता दिखती है । दीपक बाबा- मै इस कविता को जीने की कला कहूँगा । ज़ील - शेफालिका जी से परिचय के लिए आभार । उस्ताद जी - सुन्दर सशक्त । देवेन्द्र पाण्डेय - सार्थकता जीवन का उद्देश्य नहीं प्रक्रिया है । शाहिद मिर्ज़ा शाहिद - नायाब रचनायें पढ़ने को मिल रही हैं । रचना दीक्षित - लाजवाब रचना अच्छी अभिव्यक्ति । डॉ.टी एस दराल-कविता क्या यह तो ज्ञान का भंडार है ।
13 अक्तूबर 2010 कोप्रकाशित मलयाळम कवयित्री सुगत कुमारी की कविता पर अख्तर खान अकेला ,राजेश उत्साही ,अर्पिता ,इस्मत ज़ैदी डॉ. मोनिका . संगीता स्वरूप , शाहिद मिर्ज़ा , सदा , उस्ताद जी , शोभना , डॉ. अनुराग , अनिल कांत , शिखा वार्ष्णेय , रश्मि रविजा ,वन्दना , समीर लाल , ज़ील . झरोखा , उपेन्द्र , महेन्द्र वर्मा , प्रवीण पाण्डेय , सुशीला पुरी, डॉ. टी एस दराल  देवेन्द्र पाण्डेय , संजय भास्कर ,अजय कुमार , राजेश्वर वशिष्ठ , डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक . प्रो. अली ,और अभिषेक ओझा ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की । 
14 अक्तूबर 2010 को प्रकाशित ओड़िया कवयित्री प्रतिभा शतपथी की कविता पर नवरात्र कविता उत्सव के सातवें दिन कविता के प्रेमी इन पाठकों के विचार प्राप्त हुए । शाहिद मिर्ज़ा शाहिद - कितना कुछ सीखने का मौका दिया आपने ।संगीता स्वरूप - मार्मिक अभिव्यक्ति ।ज़ील - मार्मिक अभिव्यक्ति , इन कवयित्रियों से परिचय के लिए आभार ।रचना दीक्षित -  बेहद मार्मिक ,मानवता को झकझोरती हुई । सुनील गज्जाणी -  आपका आभार कि यह आपने हम तक पहुँचाया । इस्मत ज़ैदी - कितने दुख हैं समाज में ऐसे में गुल ओ बुलबुल की बातें निरर्थक लगने लगती हैं । अनिल कांत - आपके इस कर्म से मिलने वाले लाभ को केवल प्रशंसा कर देने से वर्णित नहीं किया जा सकता । शोभना चौरे - बहुत ही गहरी वेदना को अभिव्यक्त करती सशक्त कविता । वन्दना - बेहद मर्मस्पर्शी रचना झकझोर जाती है ।शिखा वार्ष्णेय - दिल को छू लेने वाली कविता । रश्मि रविजा - बहुत ही उम्दा कविता । उपेन्द्र - इतनी अच्छी कविताओं से परिचय आपके प्रयास के बगैर मुमकिन नहीं ।प्रवीण पाण्डेय - इतने आयाम हैं नारी मन के । डॉ. अनुराग - इस बार का कथादेश अभी कल ही हाथ आया है । शुक्रिया इस कविता को बाँटने के लिए । राजेश उत्साही - एक सच्ची स्त्री से ईश्वर भी डरता है । महेन्द्र वर्मा - एक वेदनाव्यथित नारी और शक्तिस्वरूपा नारी दोनो का प्रभावशाली चित्रण ।डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक -इस कविता को पढ़कर “लुच्च बड़ा परमेश्वर से कहावत का स्मरण हो आया । समीर लाल उड़न तश्तरी - बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति रही । राजेश्वर वशिष्ठ - बेहतरीन कविता व अनुवाद । संजय भास्कर - बेहतरीन कविता के लिए धन्यवाद । अशोक बजाज -अच्छी प्रस्तुति । अमिताभ श्रीवास्तव -अभी तो सात कविता ही हुई हैं दो का इंतज़ार है ।रानी विशाल - मर्मस्पर्शी रचना । प्रो. अली -भयभीत होते ईश्वर का खयाल बहुत रोमांचित करता है । वाणी गीत - बेहद मार्मिक आभार ।
15 अक्तूबर 2010 आठवें दिन प्रकाशित विम्मी सदारंगाणी की कविता पर ओपनिंग बैट्समैन की तरह शुरुआत करते हुए संजय भास्कर ने कहा – “मैं कोल्ड कॉफी के ले वेटर को बुलाती हूँ ..अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया । डॉ. मोनिका शर्मा ने सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए आभार व्यक्त किया । वन्दना ने कहा इन कविताओं में बहुत कुछ अनकहा छुपा है । महेन्द्र वर्मा ने कहा पहली कविता में युवा मन की अपेक्षा दूसरी में बाल मन द्वारा दुनिया की उपेक्षा है । दीपक बाबा ने कहा ये आवारा किस्म के खयाल बेहतरीन कवियों की ही अमानत हैं । राजेश उत्साही ने कहा विम्मी जी की कविता दिल पर ऐसे गिरती है जैसे किसी ने गरम गरम चाय उंडेल दी हो ।दूसरी कविता आज के समकालीन परिदृश्य में असहिष्णु होते समाज की बात करती है । इसमत ज़ैदी ने कहा बार बार पढ़नी होगी यह कविता ।संगीता स्वरूप ने कहा आपके माध्यम से अनेक भाषाओं की कवयित्रियों से परिचय हुआ । सदा ने कहा बहुत सुन्दर रचनायें ...आप एक माध्यम बने इन रचनाओं के लिए । प्रवीण पाण्डेय ने कहा दोनो की दोनो सशक्त रचनायें ।शाहिद मिर्ज़ा ने कहा अच्छी और दुर्लभ रचनायें पढ़ने को मिलीं ।डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक ने कहा दोनो कवितायें बहुत ही गहन भाव अपने में समेटे हुए हैं । अली साहब ने कहा गान्धी जी से थोड़ी इज़्ज़त से पेश आया जा सकता था । कविता मानीखेज़ है । दीपक मशाल ने कहा पूरी कविता वर्कशॉप की तरह लगी यह मालिका । डॉ. दिव्या,ज़ील ने कहा अनॉदर ग्रेट कलेक्शन ।  डॉ. टी एस दराल ने कहा दूसरी कविता को समझने के लिए दिमाग लगाना पड़ेगा ।अमिताभ मीत ने कहा यह कविता बार बार पढ़ी , समझने की कोशिश की जाएगी ।समीर भाई उड़न तश्तरी ने कहा काश इस चोट की धमक सही जगह पहुँचे ।अनामिका की सदायें ने कहा इनमे स्त्री ,समाज और पुरुषवादी मानसिकता को लेकर अनेक अर्थ हैं ।रानी विशाल ने कहा इन कविताओं के माध्यम से काव्यशिल्प के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है । अनिल कांत ने कहा कितना कुछ कह देती हैं विम्मी जी । अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी इस सत्र में पहली बार आये उनका स्वागत उन्होने कहा ..प्रेम का जेट विमान भी गजब होता है । एक समय में इतिहास के दो चेहरे ,हम कहाँ है व हमारी भूमिका कैसी है इस पर प्रश्न है ।हम लुका छिपी के खेल ( इतिहास के प्रति अगम्भीरता ) में आँख मुन्दिया हो गए हैं । सिद्धेश्वर जी ने कविता की जयजयकार की ।
16 अक्तूबर अंतिम दिन प्रकाशित बांगला कवयित्री जया मित्रा की कविता पर संजय भास्कर , ताऊ रामपुरिया ,ललित शर्मा , राजेश उत्साही , उस्ताद जी , डॉ. दिव्या , डॉ. मोनिका शर्मा . डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक ,महेन्द्र वर्मा , वन्दना , देवेन्द्र पाण्डेय , रचना दीक्षित , इस्मत ज़ैदी , शिखा वार्ष्णेय , रश्मि रविजा , डॉ. टी एस दराल , राज भाटिया , सूर्यकांत गुप्ता ,प्रवीण पाण्डेय , शाहिद मिर्ज़ा शाहिद ,वन्दना अवस्थी दुबे , अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी , गिरीश पंकज , गिरिजा कुलश्रेष्ठ ,वाणी गीत , प्रो. अली ,अशोक बजाज गिरीश बिल्लोरे व नूतन नीति की प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं ।
इन नौ दिनो तक आपका स्नेह व सहयोग मुझे मिलता रहा , आभारी हूँ । इस ब्लॉग पर निरंतर बेहतरीन कवितायें देता रहूंगा  । आप हमेशा आते रहेंगे ऐसा विश्वास है । आभार उन साथियों का भी जो अन्यान्य व्यस्तताओं के कारण फिलहाल नहीं आ पाये ।
धन्यवाद मैं क्या कहूँ वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की कविता “ उमस “ में तो कवितायें खुद धन्यवाद दे रही हैं ..........
पर मौसम चाहे जितना खराब हो
उम्मीद नहीं छोड़ती कवितायें
वे किसी अदृश्य खिड़की से
चुपचाप देखती रहती हैं
हर आते जाते को
और बुदबुदाती हैं  -   
धन्यवाद ! धन्यवाद !

1983 में लिखी केदार जी की यह कविता मुझे आज ब्लॉग के सन्दर्भ में कितनी सही लग रही है । यह कवि भी कह रहा है ....... धन्यवाद ! धन्यवाद !  
निवेदन - कृपया मेरा ब्लॉग पास पड़ोस देखें , एक नई तरह की किताब के बारे में ।