सोमवार, जून 28, 2010

अभिनय करना अर्थात एक जन्म मे दूसरे जन्म को जीना है


            रंगमंच की दुनिया इस दिखाई देने वाली दुनिया के भीतर होते हुए भी न दिखाई देने वाली एक अलग दुनिया होती है । अगर आपको रंगमंच के कलाकारों का जीवन देखना है तो किसी नाट्य संस्था से जुड़कर देखिये । जिन दिनों नाटक की रिहर्सल होती है उन दिनों वे कलाकार अपने जीवन से बाहर निकल कर उस पात्र का जीवन जीने लगते हैं । मंजे हुए कलाकार तो उस पात्र को जीने के लिये बहुत मेहनत करते हैं , वे उस पात्र के मनोविज्ञान का अध्ययन करते हैं, उन परिस्थितियों और उनसे सम्बन्धित पुस्तकों का अध्ययन करते हैं । शायद इसीलिये वे अपनी भूमिका का सही सही निर्वाह कर पाते हैं और हम उनके अभिनय को देखकर कर वाह कह उठते हैं । इसके अलावा भी उनकी एक अलग तरह की जीवन शैली होती है , कुछ अलग करने की चाह होती है , कुछ क्षण सही तरह से जीने की आकांक्षा होती है ।
            संयोग से मुझे ऐसे रंगकर्मी मित्र मिले जिनके साथ रहकर मैंने कलाकारों के जीवन को कुछ करीब से जानने की कोशिश की , उनके सुख-दुख और संघर्ष में उनका साथी रहा । इस कोशिश में उपजी कुछ  कवितायें जिनमें से फिलहाल यह दो कवितायें । हो सकता है इन्हे पढ़कर आपको अपने कुछ मित्रों की याद आये ।  
 
अभिनय – एक
 

वह हँसता था
सब हँसते थे
वह रोता था
सब रोते थे

हँसते हँसते
रोते रोते
वह चुप हो गया
एक दिन 

वह चुप हो गया हमेशा के लिये
न कोई हँसा
न कोई रोया

सबने कहा वाह
मरने का अभिनय
इतना जीवंत |

अभिनय – दो


निर्देशक के घर में
पहले एक आया
फिर आया दूसरा
तीसरे ने खोली बोतल
चौथे ने सुलगाई बीड़ी
पाँचवा घुसा रसोई में
बनाने लगा चाय

छठवें ने खाई रोटी
सातवें ने बजाई
बिथोवेन की कैसेट

आठवाँ लगा नाचने
दसवाँ घुसा बेडरुम में
सो गया पसरकर

रात हुई
नशा टूटा
उठे सब
चल दिये एक एक कर

यह उन दिनों की बात है जब
एक नाटक खत्म हो चुका था
और दूसरा शुरु नहीं हुआ था |
               - शरद कोकास  

( चित्र गूगल से साभार )
 


शुक्रवार, जून 11, 2010

विवाह समारोहों में क्या कभी आपने इन्हे देखा है ?


यह विवाहों का मौसम है । जहाँ से गुज़रो शहनाई बजती सुनाई देती है । जिनका विवाह हो रहा है वे भी प्रसन्न हैं और साथ ही उनके माता पिता भी ,कि चलो एक ज़िम्मेदारी पूरी हो गई । पता नहीं कब तक हमारे यहाँ बच्चों के विवाह को माता पिता अपनी ज़िम्मेदारी समझते रहेंगे । शायद यह इस वज़ह से है कि अपना कैरियर चुनने में तो यह पीढ़ी सक्षम हो गई है लेकिन जीवन साथी चुनने में अभी तक सक्षम नहीं हो पाई है । इस परावलम्बिता का सबसे अधिक प्रभाव उन लड़कियों पर होता है अन्यान्य कारणों वश जिनका विवाह नहीं हो पाता और एक उम्र गुज़र जाने के बाद अवसाद जिन्हे घेर लेता है । मैंने इस कविता में ऐसी ही लड़कियों के मन में झाँकने की थोड़ी कोशिश की है....



 
                        अधेड़ होती लडकियाँ


जैसा कि धुंधला आईना ही जिम्मेदार हो
समय के चेहरे पर दिखाई देती झुर्रियों के लिए
बार बार पोछ्ती हैं आईना
वक़्त से पहले अधेड़ होती लडकियाँ

वे उंगलियों से  टटोलती  है    
रंगीन किताबों की चिकनी तस्वीरें
कायाकल्प करने वाले झरनों के स्वप्न लिये
देर तक जागती है ख्वाबगाह में
सड़क को सड़क की तरह देखने के सिवा जहाँ कोई विकल्प नहीं
वे उसे हवा में तनी एक रस्सी की तरह देखती हैं
आत्मसम्मान का मजबूत बांस लिये जिस पर चलते हुए
तरस और हवस से भरी नज़रों के बीच संतुलन बनाती है
वे हर कदम उँच नीच से बचाती हैं

उम्र के शब्दकोष में जहाँ पुराने पीले पन्नों पर
सुखे गुलाबों के नीचे छुपे होते हैं कुछ शब्द
शरमाना इठलाना इतराना
वहीं परिशिष्ट में दिखाई देते है
इर्ष्या हताशा और ऊब के तमाम पर्यायवाची शब्द
अपने बचाव के लिए ज़रुरी शब्दों की तलाश में
हडबडी में पलटती हैं वे जर्जर पन्ने

उनके  अकेलेपन में सेंध लगाते है औरों के कहकहे
 जिनमें वे उपेक्षा के अघोषित स्वर सुनती है
इच्छाओं की अपार भीड में
अपने लिए चुनती हैं एक अकेला कोना
जहाँ अपने शौक और विचार की हठधर्मिता में
वे अपने आप से प्रतिवाद करती हैं
आखिर वे दुनिया की पहली लडकी तो नहीं हैं
अधेड़ होती हुई

एक दिन जब उतरता हुआ ज्वार
देह की रेत पर निराशा का कीच छोड जाता है
सीप जडें  धरौंदों के बह जाने के दुख में
जाती हुई लहर थामने की कोशिश करती है    
अधेड़ होती हुई लडकियाँ
और चटटानों पर पछाड खाकर गिरती है
उनके भीतर बहते भय और खुशी के रेले
अर्थहीन दलदल में बदल जातें है जब
विज्ञापन में दिखाये जाने वाले सपनों के राजकुमार की उम्र
अपनी उम्र से कम दिखाई देने लगती है
कचरे में फेंक दी जाती हैं
सुंदरता बढाने वाली  क्रीम की खाली डिब्बियाँ
खाली महत्वाकांक्षा के साथ

इन दिनों पढ़ती हैं वे यौन उत्पीड़न की खबरें
और उनमें निहित ध्वन्यार्थ ढूंढती हैं

                        शरद कोकास

(चित्र गूगल से साभार )