बुधवार, मार्च 17, 2010

नवरात्रि द्वितीय दिवस - विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविता

नवरात्रि के प्रथम दिन प्रकाशित फातिमा नावूत की कविता पर खुशदीप सहगल ने कहा दुनिया में खुशियों को सही तरीके से तकसीम कोई ख़ातून (महिला) ही कर सकती है. श्याम कोरी 'उदय' ,विनोद कुमार पाण्डेय , रंजना , राज भाटिय़ा और साधना वैद  और वन्दना को यह कविता बहुत पसन्द आई . कुलवंत हैप्पी ने कहा उत्तम विचारों से लबालब रचना, दिल को छूती है डॉ .अनुराग व समीर लाल ने सिद्धेश्वर जी के अनुवाद की प्रशंसा की । रचना दीक्षित ने कहा फातिमा जी की सोच कितनी स्पष्ट और सकारात्मक है एक उर्जा से भरपूर है ये कविता। रानी विशाल ,ज्योति सिंह ,प्रिया,ललित शर्मा,शोभना चौरे ने कहा सर्व प्रथम आपको बहुत बहुत धन्यवाद इस नवरात्रि में भी शक्ति कि शक्तियों से रूबरू करवाने के लिए |चंदन कुमार झा ने कहा कविता में जो इच्छाऐं व्यक्त की गयी है, क्या ऐसा घटित हो पाता है किसी के जीवन में क्षण मात्र के लिये भी ? समय ने कहा ‘मेरे अनुयायी सराहना करेंगे’ यह पंक्ति और अंत का भाव अच्छा नहीं लगा। शीर्षक भी। पर उपरोक्त दोनों बातें इसी शीर्षक के अंतर्गत सहज पैदा हुई कमजोरियां हैं । अपनी विशेष टिप्पणी मे अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा इस कविता को देखिये तो इसकी साफ़ अन्तर्ध्वनि यह है कि चूंकि अब तक इस दुनिया को वे मर्द चलाते रहे जिन्होंने ख़ुद ही आधी आबादी को उसके हक़ूक से बेदख़ल किया है तो यह लाजिम था कि बाकी चीज़ों के आपसी बंटवारे में भी ताक़त और रसूख का इस्तेमाल होता और यह बंटवारा, रहने का और राज करने का यह तौर गैरबराबरी वाला होना ही था। हरकीरत हीर ने सवाल किया कवयित्री एक ओर नयी दुनिया का फीता भी काट रही है दूसरी और उसे यथावत बने रहने देना भी इसके जवाब मे अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा ..हरकीरत जी अभी तो इसे एक साथ देखा जाये तो उस उत्कट आशावाद के बरक्स कवि को तुरंत सामने दिख रहा भविष्य वर्तमान से भी अधिक भयावह लगता है इसीलिये वह ऐसा कह रही है ।  
                 और आज नवरात्रि के दूसरे दिन प्रस्तुत है कवयित्री विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविता । पोलैंड की कवयित्री ,निबन्धकार व अनुवादक विस्वावा शिम्बोर्स्का का जन्म 2 जुलाई 1923 को हुआ था । उन्हे वर्ष 1996 का साहित्य का नोबल पुरस्कार मिल चुका है ।


बायोडाटा लिखना

क्या किया जाना है ?
आवेदनपत्र भरो
और नत्थी करो बायोडाटा

जीवन कितना भी बड़ा हो
बायोडाटा छोटे ही अच्छे माने जाते हैं.

स्पष्ट, बढ़िया, चुनिन्दा तथ्यों को लिखने का रिवाज़ है
लैंडस्केपों की जगह ले लेते हैं पते
लड़खड़ाती स्मृति ने रास्ता बनाना होता है ठोस तारीख़ों के लिए.

अपने सारे प्रेमों में से सिर्फ़ विवाह का ज़िक्र करो
और अपने बच्चों में से सिर्फ़ उनका जो पैदा हुए

तुम्हें कौन जानता है
यह अधिक महत्वपूर्ण है बजाए इस के कि तुम किसे जानते हो.
यात्राएं बस वे जो विदेशों में की गई हों
सदस्यताएं कौन सी, मगर किसलिए - यह नहीं
प्राप्त सम्मानों की सूची, पर ये नहीं कि वे कैसे अर्जित किए गए.

लिखो, इस तरह जैसे तुमने अपने आप से कभी बातें नहीं कीं
और अपने आप को ख़ुद से रखा हाथ भर दूर.

अपने कुत्तों, बिल्लियों, चिड़ियों,
धूलभरी निशानियों, दोस्तों, और सपनों को अनदेखा करो.

क़ीमत, वह फ़ालतू है
और शीर्षक भी
अब देखा जाए भीतर है क्या
उसके जूते का साइज़
यह नहीं कि वह किस तरफ़ जा रहा है-
वह जिसे तुम मैं कह देते हो
और साथ में एक तस्वीर जिसमें दिख रहा हो कान
- उसका आकार महत्वपूर्ण है, वह नहीं जो उसे सुनाई देता है.
और सुनने को है भी क्या ?
-फ़क़त
काग़ज़ चिन्दी करने वाली मशीनों की खटरपटर.
                                 
                           - विस्वावा शिम्बोर्स्का 

यह कविता कबाड़खाना ब्लॉग के श्री अशोक पाण्डेय के सौजन्य से प्राप्त हुई है और इसका यह बेहतरीन अनुवाद भी उन्होने ही किया है । यह कविता आपको कैसी लगी ..आपके विचार सादर आमंत्रित हैं - शरद कोकास