रविवार, अगस्त 28, 2011

आज जगमोहन कोकास की पुण्यतिथि है ....

अपनी युवावस्था में जगमोहन कोकास 
आज मेरे पिता जगमोहन कोकास की पुण्यतिथि है । आठ वर्ष पूर्व 28 अगस्त 2003
को उन्होंने इस संसार से विदा ली थी ।
जगमोहन कोकास का जन्म मध्यप्रदेश के बैतूल में हुआ था और वे
कवि भवानीप्रसाद मिश्र के शिष्य थे ।
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते हुए उन्होंने ओवरसीअर की नौकरी त्याग दी थी
और प्रायमरी स्कूल में शिक्षक की नौकरी से
शुरुआत कर अंत में बी एड कॉलेज में
प्राध्यापक बने।
उन्होंने इतिहास व हिन्दी में स्नातकोत्तर के अलावा एम एड और
प्रयाग से साहित्यरत्न भी
 किया था ।
 वे महाराष्ट्र के भंडारा शहर में रहे
और जीवन भर हिन्दी की सेवा करते रहे ।
यह उनके गुरू का आदेश था ।
आज प्रस्तुत है उनके द्वारा अनुवाद की गई वरवर राव की यह कविता ,
जो मुझे उनके पुराने कागज़ों में मिली ...
इसे पढ़ने के लिये इसे बड़ा करके देखें ...

पिता आज नहीं हैं लेकिन उनकी ढेर सारी तस्वीरेंऔर कुछ लेख मेरे पास हैं ।
इन्हें समय समय पर ब्लॉग पर देता रहूंगा ।
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आज हम लोग यानि मैं , मेरी छोटी बहन सीमा , पत्नी लता और बिटिया कोपल
यहाँ उन्हें याद कर रहे हैं ..

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शनिवार, अगस्त 20, 2011

मुझे विश्वास नहीं है सरकारी आँकड़ों पर

1984 के डिब्बे में तलाश की तो कुछ और कवितायें इसी तेवर की मिलीं । यह एक कविता जो उस वक़्त 1984 के भोपाल गैस कांड के बाद व्यवस्था का असली चेहरा दिखाने के प्रयास में लिखी थी । इसे पढ़िये और बताइये इस कविता का सन्दर्भ उस घटना के अलावा किसी और घटना से भी जुड़ता है क्या ?


2 ज़िन्दा चेहरों की तलाश

मेरे सामने है एक अखबार
जिसमें इर्द - गिर्द बिखरीं हैं
कई खबरें
लाशों की तरह
मेरे हाथों में
एक कैल्कुलेटर
जिस पर मैं कर रहा हूँ
मौत का हिसाब
जोड़ रहा हूँ क्रूरता को
घटाते हुए भावनाओं से
गुणा करते हुए बर्बरता से

मुझे विश्वास नहीं है
सरकारी आँकड़ों पर
मैं लेना चाहता हूँ जायज़ा
उन परिस्थितियों का
जिनमें मौत भी काँप उठी थी
उन दरवाज़ों पर
जहाँ धुआँ था
लाशों की गन्ध थी
संतोष का भाव लिये
अनभिज्ञता की नकाब ओढे
कुछ चेहरे
छुपे हुए मज़बूत दीवारों के भीतर
जहाँ  माथे का फैला हुआ सिन्दूर था
जहाँ थी कुरआन
गीता और बाइबिल
लुढकी हुई दूध की बोतल
और उन सबके पीछे
अट्टहास करता हुआ
एक घिनौना चेहरा

कैलकुलेटर
केवल मुर्दा चेहरों का
हिसाब बता सकता है
ज़िन्दा चेहरों का नहीं
मुझे तलाश है ज़िन्दा चेहरों की
जो आज व्यवस्था की आड़ लेकर
हमारी परिधि से बाहर हैं

कैलकुलेटर
कल तुम्हारे हाथ में होगा
और तुम लगाओगे
उन चेहरों का हिसाब
जो कल ज़िन्दा नहीं बचेंगे ।  

---- शरद कोकास 

शुक्रवार, अगस्त 19, 2011

हमें जो कहनी है वह बात अभी बाकी है

कल हमारे एक मित्र मिले कहने लगे यार आजकल आँदोलन का माहौल चल रहा है ,तुम्हारी वह कुत्ते वाली कविता याद आ रही है । हमें याद आया 1984 में जबलपुर के कविता रचना शिविर में , किसान और मजदूरों के आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में वह कविता लिखी थी । और मंच पर बहुत जोश से उस कविता का पाठ भी करते थे । डॉ.कमला प्रसाद को भी मेरी उम्र और इस कविता के तेवर की वज़ह से उस समय यह कविता अच्छी लगी थी । पुरानी ही सही आप भी पढ़ लीजिये  इसे ।


         हमारे हाथ अभी बाकी हैं

कल रात मेरी गली में एक कुत्ता रोया था
और उस वक़्त आशंकाओं से त्रस्त कोई नहीं सोया था
डर के कारण सबके चेहरे पीत थे
किसी अज्ञात आशंका से सब भयभीत थे
सब अपने अपने हाथों में लेकर खड़े थे अन्धविश्वास के पत्थर
कुत्ते को मारने के लिये तत्पर
किसीने नहीं सोचा
कुत्ता क्यों रोता है
1984 में एक आन्दोलन में झंडा उठाए कवि 
उसे भी भूख लगती है
उसे भी दर्द होता है

हम भी शायद कुत्ते हो गये हैं
इसलिये खड़े हैं उनके दरवाजों पर
जो नहीं समझ सकते
हमारे रूदन के पीछे छिपा दर्द
उनके हाथों में हैं वे पत्थर
जो कल हमने तोड़े थे चट्टानों से
बांध बनवाने के लिये
या अपने गाँव तक जाने वाली
सड़क पर बिछाने के लिये
उनका उपयोग करना चाहते हैं वे
कुचलने के लिये हमारी ज़ुबान
चूर करने के लिये
हमारे स्वप्न और अरमान
वे जानते हैं
हमें जो कहनी है
वह बात अभी बाकी है

ज़ुबाने कुचले जाने से नहीं डरेंगे हम
हमारे मुँह में दाँत अभी बाकी हैं

लेकिन हम आदमी हैं कुत्ते नहीं
आओ उठे दौड़ें
और छीन लें उनके हाथों से वे पत्थर
हमारे हाथ अभी बाकी हैं 

हमारे हाथ अभी बाकी हैं । 

   - शरद कोकास 




शनिवार, अगस्त 06, 2011

बुखार में प्रेम कवितायें

वैसे तो सबसे कम झमेला इस बात में है कि बीमार हुआ ही न जाये.. लेकिन इस कम्बख़्त वायरस का क्या करें , लाख बचना चाहा लेकिन बुखार आ ही गया ... और बुखार के साथ याद आई अपनी यह तीन पुरानी बुखार कवितायें ,हमारे एक मित्र ने इन्हे नाम दिया है , बुखार में प्रेम कवितायें , लीजिये आप भी पढ़िये ....


बुखार-एक

बवंडर भीतर ही भीतर
घुमड़ता हुआ
लेता हुआ रोटी की जगह
पानी को स्थानापन्न करता
रगों में खून नहीं ज्यों पानी
शरीर से उड़ता हुआ ।

 बुखार-दो

बुखार
आग का दरिया
पैर की छिंगुली से लेकर
माथे तक उफनकर बहता हुआ

छूटती कँपकपी सी
बदल जाता चीज़ों कास्वाद
साँसों का तापमान
जीभ खुश्क हो जाती
उतर जाता बुखार
माथे पर तुम्हारा हाथ पड़ते ही ।

बुखार –तीन

अछा लगता है
गिरती हुई बर्फ में खड़े
पेड़ की तरह काँपना
 जड़ों से आग लेना
शीत का मुकाबला करना
अच्छा लगता है
ठिठुरते हुए मुसाफिर का
गर्म पानी के चश्मे की खोज  में
यात्रा जारी रखना  । 

                        शरद कोकास