गुरुवार, नवंबर 24, 2011

इतिहास से कुछ अलग

1985 के युवा आक्रोश की एक और कविता


                         इतिहास के पन्नों पर

इतिहास की जर्जर किताब का
अपने हित में
उपयोग करने वालों ने
बिखरा दिया है पन्नों पर
ताज़ा निर्दोष रक्त
जो यकीनन
मेरे तुम्हारे पूर्वजों का रक्त नहीं
इस रक्त के धब्बों में
दब चुकी हैं अनगिनत गाथायें
कानपुर से इलाहाबाद जानेवाली
सड़क के दोनों ओर
पेड़ों पर फाँसी पाने वाले
आज़ादी के दीवानों की
पुत्रों के शीश तश्तरी में रखकर
जिसके आगे पेश किये गये
उस बहादुर शाह ज़फर के अरमानों की
कूका विद्रोह में
तोप के मुँह पर बाँधकर उड़ाये गये
अनगिनत सिख जवानों की
और उन तमाम इंसानों की
जिनके नाम
शहर के बीच स्थित
शहीद स्मारक पर खुदे हैं

इतिहास के पन्नों पर जमा रक्त
हमारे सगे सम्बन्धियों की रगों का
रक्त न होने के फलस्वरूप
हमारे संकुचित दिमागों में
हलचल मचाने में असमर्थ है
हमारे सामान्य ज्ञान में शामिल है
पाठ्यपुस्तकों में
विवशता वश पढ़े
चन्द महान व्यक्तियों के नाम

हमारी भौगोलिक जानकारी में नहीं है
काशी ,बद्री नाथ ,मक्का, मदीना
और अमृतसर की राह  में आने वाले
जालियाँ वाला बाग़ और अगस्त क्रांति मैदान
पानठेलों पर खड़े होकर
प्रकट किया जाने वाला आक्रोश
जनरल डायर व सौंडर्स के देश की
सम्पन्नता के गुणगान के सामने
नपुंसक सिद्ध होता है

रंगबिरंगी पत्रिकाओं के
मख्खनी चेहरों पर अटकी नज़र
देख नहीं पाती
क्रांतिकारियों के अखबार गदर में प्रकाशित
रोज़गार का विज्ञापन
जहाँ मेहनताना थी मृत्यु
पुरस्कार शहादत
पेंशन में आज़ादी
और कार्यक्षेत्र हिन्दुस्तान

ताम्रपत्र गले में लटकाये
सड़कों पर घूमता आवारा मसीहा
चीखता है
पहचानो उन सियारों को
जो तुम्हारी रगों में बहने वाले खून से
अपने आप को रंगकर
तुम्हे तुम्हारे ही घर में
गुलाम बनाने के साजिश रच रहे हैं
तुम्हारे ही भाइयों के हाथों में
बन्दूकें थमाकर
लाशों का व्यापार कर रहे हैं
शायद यही वक़्त है सोचने का
वरना आनेवाली पीढ़ीयाँ
इतिहास के पन्नों पर
देखेंगी
हमारे रक्त के निशान
लेकिन उन पर
गर्व नहीं कर सकेंगी ।
                        - शरद कोकास 

( चित्र गूगल से साभार )