गुरुवार, अप्रैल 26, 2012

1988 की एक कविता


1988 मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण वर्ष है , इस साल मेरा विवाह हुआ था और मुझे घर की पकी - पकाई रोटी मिलने लगी थी । कुछ प्रेम कवितायें भी लिखीं इस साल और शिल्प और कथ्य में भी कुछ परिवर्तन हुआ । प्रस्तुत है उस समय की यह एक कविता । 

रोटी की गन्ध

ओसारे में बैठकर
मैं जब लिख रहा होता हूँ कोई कविता
झाँककर देखता हूँ
यादों की खपच्चियों से बना
अनुभूतियों का पिटारा
संवेदनाएँ बचाना चाहती हैं
मस्तिष्क को अनचाही फांस से
लेकिन उंगलियों से टटोलकर
बिम्ब ढूँढना तो सम्भव नहीं

यकायक सजग हो उठती है
तथाकथित नश्वर शरीर की इन्द्रियाँ
नासापुटों तक आ पहुंचती है
पकती हुई रोटी की ताज़ा गन्ध
कान के पर्दे से टकराती है
कपड़े पटकने फींचने की आवाज़ें
पाठ पढते हुए बच्चों की आवाज़ें सुनकर
जेहन में उभरता है उनके हिलते शरीर का बिम्ब
यह गन्ध और यह आवाज़ें
आहत करने लगती हैं मेरी संवेदनायें
गरम तवे पर गिरी पानी की बून्द की तरह
उड़ जाती है मेरी कविता
मेरे और कविता के बीच
आई बाधा के दौरान
मै सोचता हूँ
गोलियों बमों की आवाज़ों
चीखों –चित्कारों की तुलना में
कितनी स्वाभाविक हैं यह आवाज़ें
यकीनन बारूद की गन्ध की अपेक्षा
रोटी की गन्ध अधिक प्रिय है मुझे

उतार लेना चाहता हूँ मैं हू ब हू इनको
अपनी कविता में ।

सोमवार, अप्रैल 02, 2012

पिछली 25 तारीख को भिलाई के कथाकार लोकबाबू के कथा संग्रह ' बोधिसत्व भी नहीं आये ' का विमोचन हुआ । संग्रह पर बात करते हुए कथाकार परदेशी राम वर्मा ने कहा कि लोकबाबू की कहानियों में एक पात्र रिक्शेवाला अवश्य होता है । दर असल यह साइकल रिक्शेवाला हमारे समाज का ही एक पात्र है सो हमारी कविता कहानियों में तो आयेगा ही । मुझे याद आया , एक कविता मैंने भी रिक्शेवाले पर लिखी थी । आप भी देखिये , एक कवि कैसे देखता है , रिक्शेवाले और रिक्शे में बैठने वाले को । जी , यह भी 1987 की ही कविता है ।

 रिक्शेवाला 


उसके पाँवों में इकठ्ठा ताकत
शाम को रोटी बन जायेगी
माथे से टपकता पसीना
नन्हे बच्चे के लिये दूध
आँखों के आगे गहराता
नसों से निकलता अन्धेरा
गवाह रहेगा
आनेवाली खुशहाल सुबह का

रिक्शे की गुदगुदी सीट पर
बैठने का सामर्थ्य रखने वाले लोग
राह चलते रोयेंगे
खाली जेबों का रोना
समय काटू बातों के बीच
पूछेंगे शहर के मौसम
और सिनेमा हॉल में लगी
नई फिल्म के बारे में
खस्ताहाल सड़कों को लेकर
शासन को गालियाँ देते हुए
उतरते वक़्त थमा देंगे
रेज़गारी के साथ
उसके लुटेरे होने का प्रमाणपत्र

वह जानता है
इन थुलथुल व्यक्तियों के पास
लिजलिजी दया के अलावा
और कुछ नहीं है ।
                        - शरद कोकास 
( चित्र गूगल छवि से साभार )