गुरुवार, जुलाई 26, 2012

1989 की कवितायें - बचपन

बचपन के बारे में जब भी सोचता हूँ तो याद आता है कि हम बचपन में ही अपने होने की कल्पना कर लिया करते हैं । हर एक बच्चा अपने ताकतवर होने की कल्पना तो करता है लेकिन किसी राक्षस की तरह नहीं । राक्षस यहाँ एक बिम्ब है ।


52 बचपन

बच्चों की दुनिया में शामिल हैं
आकाश में
पतंग की तरह उड़ती उमंगें
गर्म लिहाफ में दुबकी
परी की कहानियाँ
लट्टू की तरह
फिरकियाँ लेता उत्साह

वह अपनी कल्पना में
कभी होता है
परीलोक का राजकुमार
शेर के दाँत गिनने वाला
नन्हा बालक भरत
या उसे मज़ा चखाने वाला खरगोश

लेकिन कभी भी
वह अपने सपनों में
राक्षस नहीं होता ।

            - शरद कोकास 

बुधवार, जुलाई 18, 2012

1989 की कवितायें - कबाड़

घर के सामने से जब भी कोई रद्दीवाला या कबाड़ी गुजरता है ,आवाज़ देता हुआ ..लोहा, टीना ..प्लास्टिक .. रद्दी पेपर .. तो मुझे लगता है काश कोई कबाड़ी ऐसा भी होता जो इस पुरानी सड़ी - गली व्यवस्था को ले लेता और बदले में कोई नई व्यवस्था दे देता .. । लेकिन ऐसा भी कभी होता है ? पुरानी व्यवस्था के बदले नई व्यवस्था इतने आसान तरीके से आ जाती तो क्या बात थी । कुछ ऐसे ही विचारों को प्रतिबिम्बित करती 1989 की एक और कविता ..


51 कबाड़

व्यवस्था की ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर
देश के नाम दौड़ने वालों के
घिसे हुए पुर्ज़े
मरम्मत के लायक नहीं रहे

मशीनी जिस्म के
ऊपरी खाने में रखा
मस्तिष्क का ढाँचा
मरे जानवर की तरह
सड़ांध देता हुआ

वैसे ही जैसे दाँतों और तालू को
लुभावने वादों के
निश्चित स्थान पर छूती
शब्दों के दोहराव में उलझी जीभ
और 
पूजाघर के तैलीय वस्त्रों से
पुनरुत्थानवादी विचार
फटे पुराने बदबूदार

सड़क से गुजरता है
आवाज़ देता हुआ कबाड़ी
पुराना देकर नया ले लो ।
                        शरद कोकास  

रविवार, जुलाई 15, 2012

1989 की कवितायें - बूढ़ा हँसता है

यह कविता बूढ़े पर है या बच्चे पर , झोपड़ी पर या खाट पर , बादल पर भी हो सकती है और सूरज पर ..या फिर आग पर ...सीधे सीधे कह दूँ कि यह कविता भूख पर है ...


50 . बूढ़ा हँसता है

झोपड़ी के बाहर
झोलंगी खाट पर पडा बू
अपने और सूरज के बीच
एक बड़े  से बादल को देख
बच्चे की तरह हँसता है

उसकी समझ से बाहर है
सूरज का भयभीत होना
सूरज की आग से बड़ी
एक आग और है
जो लगातार धधकती है
उसके भीतर
सूरज ऊगने से पहले भी
सूरज ऊगने के बाद भी ।
                        शरद कोकास  

शनिवार, जुलाई 14, 2012

1989 की कवितायें - मुर्दों का टीला

सन 2005 में पहल पुस्तिका के अंतर्गत प्रकाशित 53 पृष्ठों की अपनी लम्बी कविता "पुरातत्ववेत्ता " लिखने के बहुत पहले यह कविता लिखी थी ..शायद इस कविता में उस कविता का विचार चल रहा था , स्वर इसमें भी आक्रोश का था , मेरी उन दिनों की अन्य कविताओं की तरह यह भी एक राजनीतिक व्यंग्य की कविता है । मोहेंजोदड़ो का एक अर्थ मुर्दों का टीला भी होता है ।



49. मुर्दों का टीला

टीले पर उमड़ आया है
पूरा का पूरा गाँव
गाँव देख रहा है
पुरातत्ववेत्ताओं का तम्बू
कुदाल फावड़े रस्सियाँ
निखात से निकली मिट्टी
छलनी से छिटककर गिरते
रंगबिरंगे मृद्भाण्डों के टुकड़े
मिट्टी की मूर्तियाँ
टेराकोटा
मिट्टी के बैल
हरे पड़ चुके ताँबे के सिक्के

गाँव हैरान है
बाप-दादाओं से सुनी
कहानियाँ क्या झूठी थीं
ज़मीन में दबी
मोहरों से भरी सन्दूकों की
सोने के छल्लों से टकराने वाली
लौह कुदालों की
खज़ाने पर फन फैलाये
बैठे हुए काले नाग की
सुना तो यही था
उसे स्वर्णयुग कहते थे
चलन में थे सोने-चान्दी के बर्तन
उसके घर के मिट्टी के बर्तनों जैसे हैं

श्रुतियों का विश्वास
बलगम के साथ थूकते हुए
वह याद करता है
अपने उस अँगूठे के निशान को
पिछले चुनाव के दौरान
टीले के नीचे दबे खज़ाने को
गाँववालों के बीच बँटवाने का आश्वासन देकर
ऐसे ही चित्रोंवाले कागज़ पर
मुहर लगवाकर कोई चला गया था

एक बच्चा
ज़ोरों से चीखता हुआ
गाँव की ओर भागता है
अँगूठा लगाने वालों जागो ।

                        शरद कोकास  

मंगलवार, जुलाई 10, 2012

1989 की कवितायें -सौदागरों की खोज

इस कविता के बारे में मुझे सिर्फ इतना कहना है ...

 सौदागरों की खोज

महाजन की बही से
अपना नाम कटवाने की खातिर
बैल खेत बहन बेटियों का सौदा करने वाले
विवश लोगों के लिये
सोच सोच कर दुखी होने से बेहतर है
रोटी की लड़ाई में अपनी भागीदारी दर्ज करना
खुद भूखे रहकर
उनका पेट भरने के
आदर्शवाद से बेहतर है
समस्याओं के समन्दर में गोता लगाकर
उन कारणों को ढूँढ लाना
जो जीवन से अधिक
मौत की महत्ता प्रतिपादित करते हैं

एक से दिखने वाले चेहरों के बीच
उन सौदागरों की खोज
साँपों के झुंड में
जहरीली प्रजाति खोजना है

हमारे हाथों के दायरे में हैं
हरे भरे खेत छीन कर
दरारों भरा आकाश थमाने वाले सौदागर
हम अपनी मुठ्ठियों में संजोई
ताकत का वास्ता देकर
उनसे माँगेंगे
अपने खेत
अपने पेड़
और सारा आकाश ।
                        शरद कोकास 

सोमवार, जुलाई 09, 2012

1989 की कवितायें - काले शीशों के भीतर


नेताओं के साथ चलते कारों के काफिले देखकर उस समय भी बहुत गुस्सा आता था .. पता नहीं क्यों ..। लोग समझाते थे कि भाई उनकी सुरक्षा के लिये यह ज़रूरी है । मैं कुछ समझना ही नहीं चाहता था । आज फेसबुक पर एक तस्वीर में हॉलैंड के प्रधानमंत्री की साइकल पर दफ्तर जाते हुए देखा तो फिर वह बात याद आई । एक बार तो स्कूल में अपने शिक्षक से सवाल कर दिया  कि जब नेताओं का काफिला निकलता है तो बच्चों को झंडा लेकर क्यों खड़ा कर दिया जाता है सड़क के किनारे ?  मुझे कोई जवाब नहीं मिला था । यह उन्हीं दिनों की कविता है जब जेहन में ऐसे बहुत सारे सवाल मचलते थे । 

 काले शीशों के भीतर

प्रशंसा के प्यालों में परोसी
चाटुकारिता की शराब
सुविधा सम्पन्न लोगों की पहुँच से लम्बी
आँतों में पहुँचकर
न्यूटन के तीसरे नियमानुसार
शीघ्र प्रतिक्रिया करती है

साइकल के फटे टायर से 
झाँकती ट्यूब की तरह
झाँकता है उदारवाद
आधी मुन्दी पलकों से
टपकने लगती हैं
नाटकीय संवेदनायें
वातानुकूलित कारों के
काले शीशों के भीतर
वे वमन करते हैं
जीवन के मूल राग
नैतिकता का अवरोध तोड़
कूटनीति के मंच पर पहुँचते ही
निचले स्तर के विरोधियों की तरह
वे उछालते हैं
कुछ इंकलाबी नारे
मोतियाबिन्द पालने वाली आँखों को
दिखाते हैं दिल्ली के तारे

सड़क से दूर खड़े बच्चों की तरह
झंडे हिलाते रह जाते हैं
कुछ खाली पेट

यह खाली पेट
सब कुछ समझ जाने पर
एक दिन सड़कों पर बिछ जायेंगे
आखिर कब तक अनदेखा करेंगे उन्हें
कारों के यह काफ़िले ।
                        शरद कोकास