मंगलवार, मई 29, 2012

1988 की कवितायें

प्रस्तुत है ' झील से प्यार करते हुए ' श्रंखला  की यह दूसरी कविता । रश्मि रविजा जी को इस श्रंखला की तीनो कवितायें बेहद पसन्द हैं और एक बार उन्होंने इसे फेसबुक पर शेयर भी किया था । उनके प्रति आभार के साथ ।इस कविता के बारे में आलोचक डॉ. कमला प्रसाद ने कहा था कि इस प्रेम कविता में दफ्तर के बिम्बों का प्रयोग अद्भुत है ।


झील से प्यार करते हुए –दो

वेदना सी गहराने लगती हैं जब
शाम की परछाईयाँ
सूरज खड़ा होता है
दफ्तर की इमारत के बाहर
मुझे अंगूठा दिखाकर
भाग जाने को तत्पर

फाइलें दुबक जाती हैं
दराज़ों की गोद में
बरामदा नज़र आता है
कर्फ्यू लगे शहर की तरह

ट्यूबलाईटों के बन्द होते ही
फाइलों पर जमी उदासी
टपक पड़ती है मेरे चेहरे पर

झील के पानी में होती है हलचल
झील पूछती है मुझसे
मेरी उदासी का सबब
मैं कह नहीं पाता झील से
आज बॉस ने मुझे गाली दी है

मैं गुज़रता हूँ अपने भीतर की अन्धी सुरंग से
बड़बड़ाता हूँ चुभने वाले स्वप्नों में
कूद पड़ता हूँ विरोध के अलाव में
शापग्रस्त यक्ष की तरह
पालता हूँ तर्जनी और अंगूठे के बीच
लिखने से उपजे फफोलों को

झील रात भर नदी बनकर
मेरे भीतर बहती है
मै सुबह कविता की नाव बनाकर
छोड़ देता हूँ उसके शांत जल में
वैदिक काल से आती वर्जनाओं की हवा
झील के जल में हिलोरें पैदा करती है  
डुबो देती है मेरी कागज़ की नाव

झील बेबस है
मुझसे प्रेम तो करती है
लेकिन हवाओं पर उसका कोई वश नहीं है ।